भारत सारथी/ऋषि प्रकाश कौशिक
गुरुग्राम। वर्तमान में निकाय चुनाव का जादू सर चढक़र बोल रहा है। मुख्यमंत्री नायब सैनी सरकार चलाने के बजाय हर जगह प्रचार करते हुए देखे जा सकते हैं। एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि निकाय चुनाव स्थानीय मुद्दों के लिए होते हैं या राज्य सरकार के लिए? यदि यह चुनाव वास्तव में स्थानीय मुद्दों के लिए होते हैं, जैसा कि संविधान में वर्णित है, तो इसमें स्थानीय समस्याओं की चर्चा होनी चाहिए, न कि प्रदेश सरकार के कार्यों की।
मेरी समझ के अनुसार, स्थानीय निकाय चुनाव का उद्देश्य स्थानीय समस्याओं का समाधान निकालना है। हर क्षेत्र की समस्याएं भिन्न होती हैं, जैसे कि गुरुग्राम में हर कॉलोनी की अपनी विशिष्ट चुनौतियाँ हैं। ऐसे में, यदि इन समस्याओं का समाधान राज्य सरकार ही कर सकती है, तो स्थानीय निकाय चुनाव का औचित्य क्या रह जाता है?
ट्रिपल इंजन सरकार का मिथक
भाजपा बार-बार ट्रिपल इंजन सरकार का नारा दे रही है और दावा कर रही है कि इससे गुरुग्राम का विकास तेज़ी से होगा। लेकिन, 2014 से ही गुरुग्राम में भाजपा की केंद्र, राज्य और स्थानीय सरकार रही है। फिर भी, शहर में विकास की कमी को लेकर खुद भाजपा के नेता ही सवाल उठा रहे हैं। तो क्या अब कोई स्पेशल ट्रिपल इंजन सरकार आएगी?
भाजपा नेताओं का हस्तक्षेप और परिवारवाद
भाजपा के नेताओं के सुझावों और निर्देशों को स्थानीय प्रशासन अनदेखा नहीं कर सकता। वर्तमान में देखा जा रहा है कि भाजपा के कई जिला पदाधिकारी अपने परिवार के सदस्यों को चुनाव मैदान में उतार रहे हैं। इनमें जिला महामंत्री, मीडिया प्रमुख, मंडल अध्यक्ष आदि शामिल हैं। सवाल यह उठता है कि जब ये पदाधिकारी अपने क्षेत्र की समस्याओं को हल नहीं कर सके, तो उनके राजनीतिक अनुभवहीन परिवारजन पार्षद बनकर क्षेत्र का कितना विकास कर पाएंगे?
भाजपा यह भी दावा करती है कि वह परिवारवाद से दूर है, लेकिन टिकट वितरण में पदाधिकारियों के परिवारजनों को प्राथमिकता देना क्या इस नीति का उल्लंघन नहीं है? इसके अलावा, भाजपा की भ्रष्टाचार पर शून्य सहनशीलता की नीति के बावजूद कुछ ऐसे उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं जिनकी छवि विवादास्पद रही है।
राजनीतिक अस्थिरता और जनता की उलझन
इस चुनाव में राजनीतिक अस्थिरता स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। जो कल तक भाजपा में थे, वे आज कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं, जबकि कुछ भाजपाई निर्दलीय के रूप में खड़े हो गए हैं। यह भी कहा जा रहा है कि निर्दलीय उम्मीदवारों को शीर्ष नेताओं का समर्थन प्राप्त है। ऐसी स्थिति में आम जनता को समझ ही नहीं आता कि किसे सही माना जाए।
चुनाव को लेकर जोश केवल उम्मीदवारों में ही दिखाई दे रहा है, जबकि जनता में उत्साह की कमी देखी जा रही है। इससे यह संभावना बनती है कि इस बार मतदान प्रतिशत कम हो सकता है।
निष्कर्ष
ऐसे कई सवाल हैं जो इस निकाय चुनाव के औचित्य पर विचार करने को मजबूर करते हैं। यह चुनाव जनता के लिए हो रहा है या केवल राजनीतिक दलों और उनके नेताओं के लिए? क्या स्थानीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा या फिर इसे केवल राज्य और केंद्र सरकार की नीतियों का प्रचार करने का मंच बना दिया जाएगा? जनता को इस चुनाव में अपनी भूमिका को समझना होगा और उन प्रत्याशियों को चुनना होगा जो वास्तव में स्थानीय समस्याओं को हल करने के लिए प्रतिबद्ध हों।