ऋषि प्रकाश कौशिक

भगवान परशुराम भारत की उस परंपरा के प्रतिनिधि हैं, जहाँ धर्म, न्याय और आत्मबल सर्वोपरि माने जाते हैं। वे ब्रह्मतेज और क्षात्रबल के अद्वितीय प्रतीक हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश आज उन्हीं भगवान परशुराम के नाम पर जयंती मनाने की परंपरा एक सतही दिखावे और राजनीतिक प्रचार का मंच बनती जा रही है।
आयोजन या ‘मान-सम्मान’ की होड़?
पिछले कुछ वर्षों में यह स्पष्ट रूप से देखा गया है कि परशुराम जयंती के नाम पर आयोजनों की बाढ़ तो आ गई है, लेकिन उनमें भगवान परशुराम के आदर्श और उनके विचार कहीं खोते जा रहे हैं। इन आयोजनों में मुख्य अतिथि चयन से लेकर मंच संचालन तक का मकसद अब श्रद्धा नहीं, बल्कि शोर है — और वह भी आत्म-प्रचार का।
राजनीतिक व्यक्तियों को आमंत्रित करना कोई गलत बात नहीं, लेकिन जब मंच पर बैठे लोगों का चरित्र स्वयं प्रश्नों के घेरे में हो, जब भगवान परशुराम के नाम पर उन्हीं लोगों का महिमामंडन हो जिनका आचरण उनकी शिक्षाओं के विपरीत हो, तो यह एक धर्म के साथ मज़ाक है। यह साफ तौर पर आयोजन नहीं, ‘सम्मान की मंडी’ बन चुके हैं, जहाँ मंच खरीदे जाते हैं, वक्तव्य बिकते हैं, और श्रद्धा का सौदा होता है।
चंदे की राजनीति और पारदर्शिता का गला
भगवान परशुराम के नाम पर चंदा तो खुलेआम लिया जाता है, लेकिन उसका उपयोग कहां होता है, इसकी कोई पारदर्शिता नहीं होती। आयोजनों की आड़ में गुटबाज़ी, निजी स्वार्थ और समाज में ‘कौन बड़ा’ यह साबित करने की दौड़ चल रही है। न तो आयोजनों की कोई आत्मा बची है, न ही उद्देश्य।
कई आयोजकों के लिए यह आयोजन एक ‘प्रेस फोटो’ और ‘सोशल मीडिया पोस्ट’ का साधन बन चुका है। लोग भूल जाते हैं कि यह दिन आत्मचिंतन और संस्कृति के उत्थान का अवसर है, न कि अपना पोस्टर लगाने का।
क्या भूल गए परशुराम का संदेश?
परशुराम ने अन्याय के विरुद्ध तलवार उठाई, अपने तप से सत्ता को झुकाया, और जीवन भर समाज को जागृत करने में लगे रहे। क्या आज के आयोजन उसी संदेश को आगे बढ़ा रहे हैं? नहीं। आज मंच पर भाषण देने वाले लोग भगवान परशुराम के नाम की ओट में अपने दल, अपनी जाति और अपने ‘लाभ’ की राजनीति साध रहे हैं।
तीखे सवाल, सटीक उत्तर
- क्या आयोजनों में भगवान परशुराम के विचारों की चर्चा होती है, या सिर्फ माल्यार्पण और भाषणबाज़ी होती है?
- क्या मुख्य अतिथि वही होते हैं जो परशुराम के जीवन मूल्यों को जीते हैं, या वही जिन्हें ज़्यादा चंदा दिया या जिन्होंने मंच बुक किया?
- क्या यह आयोजन आमजन के लिए प्रेरणा हैं, या समाज में और ज़्यादा ध्रुवीकरण का कारण?
अब समय है बदलाव का
अब वक्त आ गया है कि समाज इन आयोजनों से सवाल करे। आयोजकों को जवाबदेह बनाया जाए — न सिर्फ खर्च और चंदे को लेकर, बल्कि उनके उद्देश्यों को लेकर भी। आयोजनों को पुनः भगवान परशुराम की न्यायप्रियता, निर्भीकता और ब्रह्मतेज का प्रतीक बनाया जाए, न कि अवसरवादी राजनीति का मैदान।
निष्कर्ष:
परशुराम जयंती को सच्चे अर्थों में मनाना है तो सबसे पहले मंच से स्वार्थ, दिखावा और राजनीति को हटाना होगा। नहीं तो यह आयोजन एक दिन भगवान परशुराम की स्मृति नहीं, उनके नाम का अपमान बन जाएंगे — और समाज यह अपराध कभी माफ़ नहीं करेगा।