भारत सारथि , ऋषि प्रकाश कौशिक

गुरुग्राम, 29 मई 2025 – कल पहरावर में आयोजित होने जा रहे भगवान परशुराम जयंती महोत्सव को राजकीय मान्यता मिलने के बाद यह आयोजन केवल सांस्कृतिक नहीं, बल्कि राजनीतिक चर्चा का विषय बन गया है। समाज के बीच यह सवाल उठने लगा है कि क्या यह समारोह ब्राह्मण समाज के हित में है या राजनीतिक प्रयोग का हिस्सा?

गत सप्ताह नवीन जयहिंद के कार्यक्रम के बाद से ही पहरावार में होने वाले इस आयोजन को लेकर कई तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं। भाजपा सरकार द्वारा इस उत्सव को प्रायोजित करना केवल धार्मिक सम्मान का विषय नहीं, बल्कि समाज के अंदर एक विशेष सन्देश देने का प्रयास माना जा रहा है।

विधानसभा में दो ब्राह्मण नेताओं के बीच हुए वाक्युद्ध के बाद इस आयोजन का समय और स्थान कई सवाल खड़े करता है। क्या यह प्रयास ब्राह्मण समाज में फूट डालने का एक राजनीतिक प्रयोग है? समाज में इस पर गहरी चिंता है, क्योंकि ब्राह्मण समुदाय को शास्त्रों में विलक्षण बुद्धि का धनी माना गया है — फिर क्या वह सरकार की रणनीति को नहीं समझ पा रहा?

हरियाणा के इतिहास में यह भी तथ्य महत्वपूर्ण है कि राज्य के पहले मुख्यमंत्री पंडित भगवतदयाल शर्मा के बाद आज तक कोई ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं बन पाया। क्या इसका कारण समाज में एकजुटता की कमी है? यह सवाल खुद ब्राह्मण समाज के लोग उठा रहे हैं।

गुरुग्राम में 34 ब्राह्मण संस्थाओं द्वारा सात अलग-अलग परशुराम जयंती कार्यक्रमों का आयोजन इस बात की पुष्टि करता है कि समाज अब भी एक स्वर में बोलने में सक्षम नहीं हो पाया है। पंचकुला में कार्तिकेय शर्मा द्वारा किया गया कार्यक्रम भी अलग शक्ति प्रदर्शन का प्रयास माना गया।

एक नागरिक द्वारा पूछे गए प्रश्न—”क्या सरकार ब्राह्मणों में फूट डालने का काम कर रही है?”—का उत्तर देते हुए लेखक भारत सारथि ने कहा, “ब्राह्मण कभी एक नहीं हुए, और यही कारण है कि वे आज तक सत्ता में निर्णायक भूमिका में नहीं आ पाए।”

मुख्यमंत्री द्वारा खुद पहरावार कार्यक्रम में शामिल होना और वाद-विवाद से उपजे मुद्दों पर प्रतिक्रिया न देना, इसे ‘आग में घी डालने’ के रूप में देखा जा रहा है। क्या इससे भाजपा को लाभ मिलेगा? राजनीतिक विशेषज्ञों का कहना है कि भाजपा का रणनीतिक आधार ही ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति पर आधारित है — पहले 35 बनाम 1, और अब दूसरी सबसे बड़ी कौम में भी आंतरिक दरार।

जहाँ भगवान परशुराम सम्पूर्ण सनातन धर्म के पूजनीय और चिरंजीवी देवता हैं, वहीं उनकी जयंती को शक्ति प्रदर्शन और राजनीतिक लाभ का माध्यम बनाना न केवल चिंता का विषय है, बल्कि समाज की दिशा पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता है।

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