✍️ विशेष लेख: भारत सारथी / ऋषि प्रकाश कौशिक
भारत जैसे लोकतांत्रिक राष्ट्र में राजनीति का उद्देश्य जनसेवा रहा है, लेकिन वर्तमान समय में यह सेवा का भाव तेजी से स्वार्थ सिद्धि में बदलता जा रहा है। जनप्रतिनिधि अब जनसरोकारों की जगह अपने राजनीतिक आकाओं की प्रसन्नता को प्राथमिकता देने लगे हैं। यह प्रवृत्ति पिछले एक दशक में और भी स्पष्ट रूप से उभरी है।
चुनाव में जनता, जीत के बाद दल के गीत
गांव के पंच चुनाव से लेकर लोकसभा और राज्यसभा चुनाव तक, एक ही प्रवृत्ति दिखाई देती है—चुनाव से पहले जनता सर्वोपरि, चुनाव जीतने के बाद जनता गौण और नेता-मुखिया प्रमुख। वादों और घोषणाओं की झड़ी चुनावों में देखने को मिलती है, लेकिन जैसे ही शपथ होती है, जनता की याद शपथग्रहण मंच पर ही छूट जाती है। जनप्रतिनिधि फिर अपने राजनीतिक दलों के ‘भजन’ गाने में व्यस्त हो जाते हैं ताकि उन्हें अगली बार फिर से टिकट मिल सके।
सत्ता की सीढ़ी बन गई है जनता
जनता अब केवल मतदाता रह गई है, जनार्दन नहीं। वो एक सीढ़ी बन गई है, जिस पर चढ़कर जनप्रतिनिधि राजनीति की ऊँचाई पर पहुँचते हैं और फिर जनता की ओर देखने का भी समय नहीं निकालते। जिन समस्याओं को मुद्दा बनाकर वे चुनाव लड़ते हैं—पेयजल संकट, शिक्षा, बेरोजगारी, चिकित्सा, सड़क—उन समस्याओं पर बाद में न तो कोई सवाल उठते हैं, न उत्तर मिलते हैं।
जनप्रतिनिधियों की प्राथमिकता : सत्ता, सेवा नहीं
जब जनप्रतिनिधि किसी समस्या को उठाने की बजाय ट्वीट और स्मरण पत्र के स्तर तक सीमित रह जाएं और जनता को फोटोशूट और रीलों में दिखावे की तसल्ली दी जाए, तो यह लोकतंत्र नहीं, राजनीतिक तमाशा बन जाता है। कई विधायक-सांसद ऐसे हैं जो विधानसभा-संसद की बैठकों में भी शायद ही कभी दिखाई देते हैं, लेकिन अपने नेताओं की स्तुति और चरणवंदना में अग्रणी रहते हैं।
जनता की पाँच प्रमुख मांगें
(हर जनप्रतिनिधि से)
- जन संवाद की निरंतरता
महीने में कम से कम एक बार जनता से सीधा संवाद—जनता दरबार, ओपन फोरम या ऑनलाइन बातचीत। - विकास कार्यों का पारदर्शी रिपोर्ट कार्ड
हर छह माह में किए गए कार्यों की सार्वजनिक रिपोर्ट, उपलब्धियां और योजनाएं। - समस्या समाधान की समयसीमा
प्रत्येक शिकायत के समाधान की समय-सीमा तय हो और जिम्मेदारी भी निर्धारित की जाए। - स्थानीय कार्यालय और टीम की उपलब्धता
जनप्रतिनिधि का कार्यालय क्षेत्र में सक्रिय हो, जहाँ लोग जाकर अपनी बात रख सकें। - जनता के पैसे का जिम्मेदार उपयोग
विधायक निधि, सांसद निधि और सरकारी योजनाओं का सदुपयोग हो, न कि खानापूर्ति।
सच्चे जनप्रतिनिधि की पहचान
(दलनायक नहीं, जननायक की कसौटी)
- ✅ हर वर्ग से संपर्क और संवेदनशीलता
केवल अपने वोटबैंक से नहीं, सबके प्रति समान दृष्टि। - ✅ पारदर्शिता और सादगी
दिखावे से दूर, व्यवहार में सादगी और फैसलों में पारदर्शिता। - ✅ जनता की प्राथमिकता को सर्वोपरि रखना
राजनीतिक दबावों या निजी स्वार्थों के बजाय जनहित को सर्वोपरि रखना। - ✅ संसद या विधानसभा में सक्रिय भागीदारी
बहस में भाग लेना, सवाल उठाना और क्षेत्र की आवाज को मंच देना। - ✅ अपने दल की मर्यादा के भीतर जनप्रतिनिधि की आत्मा बनाए रखना
यानी दल के प्रति निष्ठा के साथ, जनता के प्रति उत्तरदायित्व को कभी न भूलना।
जनता की चुप्पी भी दोषी
यह भी एक कटु सत्य है कि जनता स्वयं भी कई बार केवल जाति, धर्म या पार्टी के नाम पर वोट देकर उस व्यक्ति को चुन लेती है, जिसने न तो कभी विकास कार्य कराए हैं, न ही जनसंवाद बनाए रखा है। लोकतंत्र में केवल वोट देना पर्याप्त नहीं है, जनप्रतिनिधियों से निरंतर प्रश्न पूछना, जन संवाद बनाए रखना और उनकी जवाबदेही सुनिश्चित करना भी जनता की ही जिम्मेदारी है।
जनप्रतिनिधि बनें जननायक, दलनायक नहीं
यदि जनप्रतिनिधि केवल दलनायक बनकर रह जाएंगे, तो वे कभी जननायक नहीं बन पाएंगे। राजनीति में दल आवश्यक है, लेकिन जनता से जुड़ाव और जन समस्याओं के समाधान की प्राथमिकता उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।
लोकतंत्र तभी बचेगा, जब जनता जागेगी
यह लेख केवल आलोचना के लिए नहीं, एक चेतावनी और आत्ममंथन के लिए है। अगर जनता आज नहीं जागी, तो कल की पीढ़ियों को जनप्रतिनिधियों के स्थान पर दलनिष्ठ प्रतिनिधियों से ही काम चलाना पड़ेगा, जो अपने आकाओं के इशारे पर तो नाचेंगे, लेकिन जनता की ओर न देखेंगे।
इसलिए समय आ गया है कि हम सब यह सोचें कि—