गुरुग्राम, 24 जून। 25 जून 1975 को तात्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी थी।21 महीने चले इस कालखंड को देश के इतिहास में काला अध्याय के नाम से जाना जाता है।आपातकाल के दौरान श्रीमती इंदिरा गांधी ने जुल्म करने की सारी हदें पार कर दी थी।अपनी सत्ता को बचाने के लिए उसने अंग्रेजों द्वारा आजादी के आंदोलन के समय देशभक्तों पर किए गए अत्याचार से कहीं ज्यादा जुल्म एवं प्रताड़ना देने का काम किया था।आपातकाल के विरुद्ध आवाज उठाने वालों को बर्फ की सिलियों पर नंगा लिटाना,पायजामा में जिंदा चूहे छोड़ना तथा हाथों व पैरों के नाखून जंबूर से उखाड़ना टॉर्चर करते समय सामान्य बात थी। पंखों पर उल्टा लटकाना,जूते में पेशाब डालकर पिलाना,जलती हुई सिगरेट शरीर पर लगाया जाना प्रताड़ित करने के लिए सामान्य नियम थे।आपातकाल के इस तानाशाही काल में इतने अधिक अत्याचार किए गए जिनको शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता।8 वर्ष से 80 वर्ष तक की आयु के पुरुषों की जबरन नसबंदी कर दी जाती थी।बसों को रोक कर लोगों को पुलिस नसबंदी के लिए गिरफ्तार करके ले जाती थी तथा अस्पताल में उनकी नसबंदी करके छोड़ दिया जाता था।चारों तरफ हाहाकार एवं चीत्कार व्याप्त हो गया था पूरा देश एक बड़ी जेल में परिवर्तित हो चुका था।पुलिस किसी को भी गिरफ्तार करते समय कारण नहीं बताती थी।अदालतों के दरवाजे बंद हो गए थे,उस कालखंड में गिरफ्तार किए गए व्यक्ति न तो वकील का प्रयोग कर सकते थे तथा न ही कोई अपील एवं दलील काम कर रही थी ।यहां तक कि  सर्वोच्च न्यायालय ने भी श्रीमती इंदिरा गांधी के सामने घुटने टेक दिए थे।

एक छत्र तानाशाही देश में स्थापित हो चुकी थी।भारत के संविधान में जिन मौलिक अधिकारों के कारण नागरिकों को आजादी मिली वह पूरी तरह से निरस्त किए जा चुके थे।समाचार पत्रों पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया गया था।बहादुर शाह जफर मार्ग पर स्थित देश के राष्ट्रीय समाचार पत्रों के कार्यालय की बिजली काट दी गई थी।अखबार छापने से पहले सेंसर होता था सरकार की नापसंद वाली खबर को समाचार पत्र से हटा दिया जाता था। देश में कहां क्या हो रहा है यह पता नहीं लगता था।मानो पूरा देश डर एवं खौफ के माहौल में जी रहा था।जिस पत्रकार ने सच छापने की कोशिश की उसे सलाखों के पीछे जाना पड़ा। हजारों लोग जेल में शहीद हो गए अनेकों के शरीर प्रताड़ना के कारण खराब हो गए जो आज तक भुगत रहे हैं।अनेक लोगों की नौकरियां चली गई, व्यापार बंद हो गए तथा विद्यार्थियों के स्कूल और कॉलेज छूट गए। 

12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश श्री जगमोहन सिंह ने अपने फैसले में श्रीमती इंदिरा गांधी के 1971 के रायबरेली चुनाव को रद्द कर दिया था।उन पर भ्रष्टाचार एवं सरकारी मशीनरी  के दुरुपयोग का आरोप लगा था। 24 जून को सर्वोच्च न्यायालय ने भी श्रीमती इंदिरा गांधी की अपील खारिज कर दी थी।उधर 25 जून को रामलीला मैदान में संपूर्ण क्रांति के नाम पर जयप्रकाश नारायण तथा विपक्षी नेताओं ने दिल्ली में रामलीला मैदान में एक रैली का आयोजन किया जिसे इतिहास की सबसे बड़ी रैली के रूप में देखा गया।रैली में ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ का जय घोष किया गया।इससे घबराकर आनन –फ़ानन में 25 जून की मध्य रात्रि को बिना मंत्रिमंडल की स्वीकृति के तथा बिना राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के आपातकाल की घोषणा तानाशाह इंदिरा गांधी ने कर दी। 50 वर्ष बीत जाने पर भी जब आपातकाल की यातनाओं  को याद करते हैं तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं।देश में लगभग 1,50,000 लोगों ने आपातकाल का विरोध करते हुए सत्याग्रह करके अपनी गिरफ्तार दी थी।मैं भी सत्याग्रह करने वालों में से एक हूं 20 वर्ष की आयु में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की योजना के तहत मैंने रेवाड़ी में सत्याग्रह किया था। 

आपातकाल की भयावहता: तथ्य बनाम अतिशयोक्ति — एक विश्लेषण

विशेष विश्लेषण | भारत सारथि

25 जून 1975 — यह भारतीय लोकतंत्र का वह दिन था, जब संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा की। इस निर्णय ने लोकतांत्रिक संस्थाओं, प्रेस, न्यायपालिका और नागरिक अधिकारों को अस्थायी रूप से निलंबित कर दिया। यह ऐतिहासिक घटना आज भी भारत के राजनीतिक विमर्श में चर्चा का केंद्र बनी हुई है।

हाल ही में वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता महावीर भारद्वाज ने आपातकाल को लेकर अपनी कटु स्मृतियों और विचारों को सामने रखा। उन्होंने इसे अंग्रेजों से भी अधिक क्रूर शासन बताया और उस कालखंड को “भारत के इतिहास का सबसे काला अध्याय” करार दिया।

उनके इस बयान की हम तथ्य और भावना दोनों दृष्टिकोणों से विवेचना करते हैं।

पक्ष में तर्क:

  1. नागरिक स्वतंत्रता का दमन: आपातकाल के दौरान अनुच्छेद 19 (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता), 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता) जैसे मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए। ADM जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला केस में सर्वोच्च न्यायालय ने भी सरकार के पक्ष में फैसला देकर इस स्थिति को संवैधानिक वैधता प्रदान कर दी थी।
  2. राजनीतिक दमन और गिरफ्तारियाँ: विपक्षी नेताओं, पत्रकारों, छात्रों और सामाजिक कार्यकर्ताओं सहित 1.1 से 1.5 लाख लोगों को बिना ट्रायल के गिरफ्तार किया गया। इसमें जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, रामविलास पासवान सहित अनेक दिग्गज नेता शामिल थे।
  3. प्रेस सेंसरशिप: बड़े मीडिया हाउसों की बिजली काटी गई, अखबारों की प्रति सरकार की सेंसर टीम को दिखानी पड़ती थी। विरोधी स्वर को पूरी तरह दबा दिया गया।
  4. जबरन नसबंदी कार्यक्रम: संजय गांधी के नेतृत्व में चलाए गए जनसंख्या नियंत्रण अभियान के तहत गरीब, ग्रामीण तबकों में जबरदस्ती नसबंदी की गई। कई मामलों में बसों, ट्रेनों और घरों से खींचकर ले जाकर यह कार्य किया गया। इसकी व्यापक आलोचना हुई।
  5. महावीर भारद्वाज का व्यक्तिगत सत्याग्रह: उन्होंने बताया कि वे स्वयं 20 वर्ष की उम्र में रेवाड़ी में सत्याग्रह कर गिरफ्तार हुए। यह तथ्य उनकी व्यक्तिगत प्रतिबद्धता और साहस को दर्शाता है।

विपक्ष में विवेचना:

  1. अतिशयोक्ति पूर्ण दावे: महावीर भारद्वाज ने यह आरोप लगाए कि “पायजामे में चूहे डाले गए”, “जूते में पेशाब पिलाया गया”, “नाखून उखाड़े गए”, “सिगरेट से जलाया गया” आदि। हालांकि अत्याचार हुए थे, परंतु इन विवरणों के कोई सार्वजनिक, न्यायिक या दस्तावेजी प्रमाण नहीं हैं।
  2. न्यायपालिका पूरी तरह नहीं झुकी: सुप्रीम कोर्ट का ADM जबलपुर केस विवादास्पद जरूर रहा, लेकिन कई जजों ने असहमति भी जताई। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इस निर्णय को गलत माना।
  3. नसबंदी की उम्र सीमा को लेकर भ्रम: बयान में कहा गया कि “8 साल के बच्चों की भी नसबंदी की गई”, जो तथ्यात्मक रूप से गलत है। नसबंदी का टारगेट मुख्यतः 18-45 वर्ष के गरीब पुरुषों को बनाया गया था।
  4. नैतिकता और संतुलन का अभाव: जब बयान सिर्फ एक पक्ष की आलोचना करें और उसमें तटस्थता न हो, तो वह राजनीतिक वक्तव्य अधिक बन जाता है, ऐतिहासिक समीक्षा कम।

इतिहास से क्या सीखें?

  • आपातकाल एक गंभीर भूल थी, जिसे खुद कांग्रेस पार्टी ने बाद में स्वीकार किया। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हार और जनता पार्टी की सरकार आना इसका सीधा प्रमाण था।
  • लेकिन, राजनीतिक लाभ के लिए अंधाधुंध आलोचना और भयावहता का अतिशयोक्तिपूर्ण चित्रण भी लोकतंत्र को कमजोर करता है।
  • लोकतंत्र में स्वतंत्र मीडिया, न्यायपालिका और विपक्ष की भूमिका को कमजोर करना राष्ट्रहित में नहीं है, लेकिन उनके नाम पर अतिरंजनाओं से जनता को गुमराह करना भी अनुचित है।

निष्कर्ष:

महावीर भारद्वाज का बयान ऐतिहासिक पीड़ा को अभिव्यक्त करता है और आपातकाल की क्रूरता को उजागर करता है — लेकिन इसमें कुछ दावे अतिशयोक्तिपूर्ण, अप्रमाणित और भड़काऊ प्रकृति के हैं, जो राजनीतिक विद्वेष को बढ़ा सकते हैं।

हमारा कर्तव्य है कि हम इतिहास को स्मरण करें, उससे सीखें, लेकिन तथ्यों और विवेक के आधार पर। आपातकाल एक चेतावनी है – कि लोकतंत्र की रक्षा के लिए सिर्फ अधिकार नहीं, उत्तरदायित्व भी जरूरी हैं।

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