– भाजपा पर लगाए अघोषित आपातकाल, संविधान और संस्थाओं के फर्जीवाड़े का आरोप

गुरुग्राम, 25 जून 2025 (भारत सारथि): आपातकाल की 50वीं बरसी पर जब देशभर में राजनीतिक बयानबाज़ी तेज है, वहीं सामाजिक संस्था “ग्रामीण भारत” के अध्यक्ष वेदप्रकाश विद्रोही ने एक विश्लेषणात्मक और तीखा बयान जारी करते हुए कहा कि “आपातकाल की स्मृतियों पर राजनीति करने की बजाय उससे सीख लेकर भारत के लोकतंत्र, संविधान और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मजबूत करने की ज़रूरत है।”
उन्होंने कहा कि विडंबना यह है कि जो भाजपा आज आपातकाल पर भाषणों की झड़ी लगाती है, उसके वैचारिक आधार आरएसएस ने उस वक्त की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पत्र लिखकर माफी मांगी थी और समर्थन का प्रस्ताव दिया था, ताकि आरएसएस से प्रतिबंध हटाया जा सके। “जो संगठन उस समय चुप था, आज वह नैतिकता का भाषण देता फिर रहा है,” विद्रोही ने तंज कसते हुए कहा।
इंदिरा गांधी की आत्मस्वीकृति और जनादेश की ताकत
विद्रोही ने कहा कि इंदिरा गांधी ने स्वयं आपातकाल को जीवन की सबसे बड़ी भूल बताया था, और देश की जनता ने 1977 में कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया। लेकिन 1980 में वही जनता इंदिरा गांधी को 353 सीटों के प्रचंड बहुमत के साथ फिर से सत्ता में लाई — यह लोकतंत्र की परिपक्वता और आत्मसुधार की मिसाल थी।
“घोषित नहीं, अघोषित आपातकाल है आज की हकीकत”
वेदप्रकाश विद्रोही ने कहा कि आज देश में कोई घोषित आपातकाल नहीं, लेकिन 2014 से अब तक एक अघोषित आपातकाल की चुप्पी फैल चुकी है, जो संविधान के मूल्यों को अंदर से खोखला कर रही है।
“ईडी, सीबीआई जैसे जांच एजेंसियों का दुरुपयोग विपक्षी दलों को कुचलने में हो रहा है। न्यायपालिका में ‘फिक्स्ड जज, फिक्स्ड बेंच’ की चर्चा अब आम हो चुकी है। चुनाव आयोग निष्पक्ष प्रहरी नहीं, भाजपा का प्रवक्ता बन गया है।”
— वेदप्रकाश विद्रोही
“संघीकरण” की प्रक्रिया का आरोप
उन्होंने आरोप लगाया कि देश की संवैधानिक संस्थाएं, विश्वविद्यालय, शैक्षणिक निकाय और प्रशासनिक ढांचे का तेजी से “संघीकरण” किया जा रहा है, जिससे भारत का लोकतंत्र बहुलता और विविधता के रास्ते से हटकर एक खास विचारधारा की ओर खिसक रहा है।
“संघी फासीवाद का खतरा”
विद्रोही ने चेतावनी दी कि यदि भारत के जागरूक नागरिकों ने अभी भी इस स्थिति को गंभीरता से नहीं लिया, तो आने वाले समय में देश पर संघी हिन्दुत्व आधारित फासीवाद हावी हो जाएगा और लोकतंत्र सिर्फ एक कागजी ढांचा रह जाएगा।
निष्कर्ष में उन्होंने कहा:
“भारत को अगर वाकई मजबूत लोकतंत्र चाहिए, तो उसे सत्ता की अहंकारपूर्ण चुप्पियों से नहीं, जन चेतना की ऊंची आवाज़ों से रक्षित किया जाएगा।”