वैद्य पण्डित प्रमोद कौशिक

प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य डॉ. महेंद्र शर्मा

पानीपत : धर्मो रक्षति रक्षित: का सरल अर्थ तो यह है कि धर्म पर चलने से ही धर्म हमारी रक्षा करता है यदि हमारी बुद्धि दुर्योधनी प्रवृति की होगी तो यह प्रवृति हमें और हमारे धर्म को हंतार: अर्थात नष्ट करने में देर नहीं करेगी।

शास्त्री आयुर्वेदिक अस्पताल के संचालक एवं प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य डॉ. महेंद्र शर्मा ने बताया कि रावण कुंभकर्ण मेघनाद हिरण्यकशिपु हिरण्याक्ष कंस शिशुपाल और दुर्योधन पर अध्ययन करेंगे तो हमें इसी सत्यता का भान होगा।

सिंधु घाटी सभ्यता ईसा पूर्व 2600 वर्ष पहले अस्तित्व में आयी और श्री भगवान विष्णु के दशम अवतार भगवान श्रीकृष्ण का जन्म ईसा पूर्व 3112 वर्ष पहले हुआ। द्वापरयुग और कलियुग की सन्धि कालखण्ड में महाभारत युद्ध हुआ जिसमें कुरुक्षेत्र में भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश दिया कि क्षेत्रे क्षेत्रे धर्म कुरु श्रीगीता के18 अध्यायों में 700 श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण जी ने कहीं भी सनातन की जगह हिन्दू शब्द का प्रयोग नहीं किया।

हिन्दू शब्द का उद्भव सिंधु घाटी की सभ्यता से सिंधु indus से हुआ है न कि वेद पुराण आदि धर्म ग्रंथों से… सनातन धर्म के दस लक्षणों में पहला लक्षण ‘धृति’ अर्थात धैर्य, धीरज, सहिष्णुता अर्थात सहन शक्ति (Tolerance) है। सनातनी जगत के लिए यक्ष प्रश्न यह है हम में धर्म के पहले लक्षण का अभाव क्यों है ? जब कि हमें सनातन धर्म में यह कहा गया है कि विषम से विषम परिस्थिति में धर्म को न छोड़े तो क्या आज हम में धर्म का पहला लक्षण “धृति” विद्यमान है या फिर हम भी कठमुल्लों की तरह अशिक्षित , हिंसक , क्रोधी और प्रतिशोधी है जिनमें सनातन धर्म का यह लक्षण ही नहीं है तो फिर हम सनातनी कहां हुए हम भी इस्लाम की तरह हिन्दू एक महजबी बन कर रह गए l हिन्दू शब्द भी सिंधु घाटी की सभ्यता से निकला है तो फिर हिन्दू धर्म कैसे हुआ।

सनातन धर्म की डोर तो ईश्वर के हाथ में है श्रीगीता जी के15 वें अध्याय का पहला श्लोक पढ़ें, आपको ज्ञात हो जाएगा, दूसरा प्रमाण भगवान श्रीकृष्ण गीता के चौथे अध्याय में कहते हैं ” यदा यदा हि धर्मस्य …” जब जब धर्म की हानि होती है तो मैं प्रकट होकर धर्म का संतुलन पुनः स्थापित कर देता हूं। तीसरा प्रमाण … श्रीरामचरित मानस में भगवान श्रीराम कहते हैं… “जब जब होई धर्म की हानि…” हम ग्रंथों का अध्ययन क्यों नहीं करते l हमें ईश्वर पर विश्वास क्यों नहीं है। एक कार्य, वस्तु या विचार जो पूरी तरह से ईश्वर के अधीन है तो हिन्दू परेशान क्यों है?

712 ई0 में पहली बार भारत पर मुस्लिम शासक मुहम्मद बिन कासिम ने आक्रमण किया था मुसलमानों के साथ 17 वीं शताब्दी (31 दिसम्बर 1600 ई0) को भारत में अंग्रेज आए, यह दोनों धर्म के दस लक्षण नहीं मानते और न ही जानते थे उनकी तलवार और प्रशासनिक क्रूरता के दम पर इस्लाम और ईसाई धर्म फैला, सनातन धर्म की रक्षा के लिए क्या क्या नहीं हुआ, न जाने कितनी कुर्बानियां हुई, फिर भी आज श्री सनातन धर्म जीवित है … भारत पर 1235 वर्ष पर राजनैतिक, अर्थिक और धार्मिक पराधीनता रही … प्रश्न यह है कि आज भी हम सनातनी कैसे है।

इतना कुछ होने के बाद हमारा सनातन धर्म जीवित है तो हमें फिर खतरा किससे है… श्रेष्ठ तो यह है कि हम धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक मंचों से, मन्दिरों से और गुरु पूर्णिमा के सत्संग उत्सवों में धर्म के लक्षणों की चर्चा करें ताकि धर्म को धारण करें और हमारी मनोर्बुद्धि में शान्ति, सहनशक्ति अर्थात सहिष्णुता, संतोष की स्थापना हो। हम भक्ति आंदोलन के धर्मवीरों, संत महापुरुषों और गुरुजनों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करें जिनके महान कृत्यों के कारण हम सनातनी हैं।

हमारे राजनीतिज्ञों को भी धर्म की परिभाषा के दस लक्षणों का अर्थ आना चाहिए। इन दस लक्षणों की माला की एक ही विशेषता है कि यदि इस धर्म की माला के दस मनकों में एक भी टूट गया तो धर्म धर्म नहीं रहेगा।

धृति: क्षमा: दमोSस्तेय शौचमिन्द्रिय निग्रह:।
धीर्विद्या सत्यंक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्।।

हम अंतर्मुखी होकर चिन्तन करें कि हम में धर्म के कितने लक्षण व्याप्त है, बाकी धर्म की रक्षा ईश्वर स्वयं कर लेंगे, आप नाहक परेशान न हों, ईश्वर ने किसी को आदेश नहीं दे रखा कि आप धर्म की रक्षा करें। हम तो धर्म को छोड़ कर सत्ता के रसवादन और राजनैतिक स्वार्थ के लिए वो कार्य अनैतिक कार्य कर रहे हैं जो वैदिक दृष्टि से हम करना ही नहीं चाहिए … क्योंकि धर्म को जाने और माने बिना बार बार हम ही तो चिल्ला रहे हैं धर्म धर्म और धर्म। हमारी गुरु शिष्य ज्ञान पद्धति, हमारी संस्कृति, हमारे संस्कार और हमारी परम्पराएं जीवंत रहें ,गुरु पूर्णिमा के पावन अवसर पर हार्दिक हार्दिक शुभकामनाएं।

भक्ति का दीपक ज्ञान की बाती जगमग ज्योति जगे दिन राति
गुर पद नख मानस मन जोती।
सुमरित दिव्य दृष्टि हिय होती।

श्री निवेदन, श्री गुरु शंकराचार्य पदाश्रित आचार्य डॉ. महेन्द्र शर्मा “महेश” देवभूमे पानीपत।

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