2017 की छेड़छाड़ मामले में अभियुक्त रहे विकास बराला की नियुक्ति ने खड़े किए नैतिक और संवैधानिक सवाल।
विचाराधीन मामले का सामना कर रहे व्यक्ति को न्यायिक पद पर नियुक्त किए जाने से उठी आलोचना की लहर।
ऋषिप्रकाश कौशिक
गुरुग्राम, 26, जुलाई 2025 – हरियाणा भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुभाष बराला के बेटे विकास बराला की सुप्रीम कोर्ट में अतिरिक्त महाधिवक्ता (AAG) के रूप में नियुक्ति को लेकर राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं।
गौरतलब है कि विकास बराला का नाम 2017 के एक चर्चित आपराधिक मामले में सामने आया था, जिसमें उन पर एक युवती के पीछा करने (स्टॉकिंग) और अपहरण के प्रयास जैसे गंभीर आरोप लगे थे। इस मामले में प्राथमिकी दर्ज होने के बाद उन्हें कुछ समय के लिए न्यायिक हिरासत में भी रहना पड़ा था। हालांकि, मामला अब भी विचाराधीन है और अंतिम निर्णय आना शेष है।
ऐसे में उनकी AAG पद पर नियुक्ति को लेकर सवाल उठ रहे हैं कि क्या कानूनी प्रक्रिया का सामना कर रहा व्यक्ति न्याय-व्यवस्था में इस स्तर की भूमिका निभाने के लिए उपयुक्त है?
कांग्रेस विधायक जस्सी पेटवाड़ ने इस नियुक्ति पर तीखी प्रतिक्रिया देते हुए सरकार से इसका स्पष्टीकरण मांगा है। वहीं, पार्टी के वरिष्ठ नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा की ओर से अब तक कोई औपचारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है। सूत्रों के अनुसार, विकास बराला के पारिवारिक संबंध हुड्डा के निकट माने जाने वाले पूर्व मंत्री सुखबीर कटारिया से होने के कारण पार्टी इस मामले पर संतुलन साधने की कोशिश कर रही है।
नवीन जयहिंद, जो कभी आम आदमी पार्टी के वरिष्ठ नेता रहे हैं, ने इस नियुक्ति को “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” जैसे सरकारी अभियानों की भावना के विपरीत बताया है। उन्होंने सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हुए लिखा कि “यह नियुक्ति समाज में गलत संदेश देती है।”
भाजपा के कुछ नेताओं ने भी इस विषय पर बयान दिए हैं। मंत्री महिपाल ढांडा ने मीडिया से बातचीत में तंज करते हुए कहा, “क्या नेताओं के बेटों को सात समुंदर पार भेज दें?” जबकि विधायक रणबीर गंगवा ने इसे “सामाजिक समरसता” से जोड़ते हुए समर्थन जताया।
विश्लेषकों का मानना है कि जनता का आक्रोश किसी व्यक्ति की पारिवारिक पहचान पर नहीं, बल्कि उसकी न्यायिक पृष्ठभूमि और नैतिक उपयुक्तता पर आधारित है। अगर बराला को किसी सलाहकार समिति या निगम में नियुक्त किया जाता, तो शायद इतना विरोध नहीं होता। लेकिन एक ऐसे पद पर जहां वे स्वयं न्यायिक कार्यों में सरकार का पक्ष रखेंगे, वहां उनकी पृष्ठभूमि पर सवाल उठना स्वाभाविक है।
भाजपा के अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि कई वरिष्ठ नेता इस नियुक्ति से असहज हैं, लेकिन पार्टी नेतृत्व — विशेष रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह — की ओर से अब तक कोई प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है। यह स्पष्ट नहीं है कि यह चुप्पी रणनीतिक है या फिर केंद्र को अभी पूरी जानकारी नहीं दी गई।
यदि भाजपा अपनी नैतिक प्रतिबद्धता और सार्वजनिक भरोसे को बनाए रखना चाहती है तो इस नियुक्ति पर पुनर्विचार किया जाना समीचीन होगा। साथ ही, जिन नेताओं के बयान लोकतांत्रिक संवाद की मर्यादा को ठेस पहुंचाते हैं, उनके खिलाफ भी पार्टी को अनुशासनात्मक कार्रवाई करनी चाहिए।
यह भी चिंताजनक है कि अन्य प्रमुख राजनीतिक दल — जिनमें कांग्रेस और क्षेत्रीय दल शामिल हैं — इस विषय पर स्पष्ट और सशक्त राय रखने से परहेज कर रहे हैं। जबकि महिलाओं की गरिमा और न्याय की शुचिता का सवाल किसी एक विचारधारा का नहीं, पूरे लोकतंत्र का सवाल है।
विकास बराला की नियुक्ति न केवल कानून और राजनीति के संगम पर बहस छेड़ती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि लोकतंत्र में प्रतीकों और संस्थाओं की साख बनाए रखना क्यों ज़रूरी है।