सनातन संस्कृति के प्रतीक पुरुष को शासकीय उपेक्षा क्यों?

???? लेख विशेष | आचार्य डॉ. महेन्द्र शर्मा ‘महेश’, पानीपत

भगवान परशुराम—एक ऐसा तेजस्वी नाम जो केवल ब्राह्मण कुल में जन्म लेने का गौरव नहीं, बल्कि सनातन धर्म के मूल तत्व अनुशासन, धैर्य, क्रोध, धर्मयुद्ध और त्याग की प्रतिमूर्ति है। वे एकमात्र ऐसे अवतार हैं जो चिरंजीवी हैं, और जिनका उद्देश्य धर्म की स्थापना और अधर्म का विनाश है।

फिर भी जब हर वर्ष उनकी जयंती आती है, तो शासकीय गलियारों में एक चुप्पी, एक ठंडी उदासीनता देखी जाती है। न कोई आधिकारिक आयोजन, न सरकारी स्तर पर श्रद्धांजलि, न ही किसी मंच से उनके योगदान की चर्चा। यह चुप्पी केवल उदासीनता नहीं, बल्कि सनातन संस्कृति के प्रति धीरे-धीरे बढ़ रही मानसिक दूरी का संकेत है।

???? भगवान परशुराम: अनुशासन और आत्मबल की मूर्ति

परशुरामजी को केवल “परशु” (कुठार) धारण करने वाले योद्धा के रूप में देखना त्रुटिपूर्ण होगा। वे एक समर्पित पुत्र, कठोर तपस्वी, दानवीर और ‘अनुशासन के प्रतीक’ थे। उनके पिता जमदग्नि – अनुशासन की अग्नि, और माता रेणुका – एकाग्रता की मूर्ति थीं। ऐसे पूज्य मातृ-पितृ की संतान का अपमान केवल धार्मिक ही नहीं, सांस्कृतिक अपराध है।

????️ “भगवान परशुराम ने जब-जब सत्ता ने धर्म से विमुख होकर अन्याय किया, तब-तब परशु उठाया और शासकों को अनुशासन का पाठ पढ़ाया।”
आचार्य डॉ. महेन्द्र शर्मा

????️ सरकारी उपेक्षा: राजनैतिक विवेक का पतन

भारत में राजनेता जहाँ वोट बैंक के लिए हर मत और मजहब के पर्वों को राजकीय दर्जा देने की होड़ में लगे रहते हैं, वहीं भगवान परशुराम जयंती जैसे पर्वों को ‘ब्राह्मणों तक सीमित विषय’ मानकर नज़रअंदाज़ कर देते हैं। यह दृष्टिकोण न केवल तात्कालिक राजनीति की अपरिपक्वता दर्शाता है, बल्कि संस्कृति के साथ हो रहे एक प्रकार के राजनैतिक धोखे को भी उजागर करता है।

“यदि किसी नेता के पौत्र का जन्मदिन हो और वह कहे कि अभी समय नहीं है, तो घर में कोहराम मच जाएगा। फिर ईश्वर के जन्मोत्सव को टालने की यह निर्लज्जता क्यों?”

????️ एक राष्ट्र, एक दृष्टि की आवश्यकता

यदि देश की सरकारें वाकई संस्कृति-सम्मान और धरोहर-संरक्षण की बात करती हैं, तो उन्हें भगवान परशुराम जयंती जैसे पर्वों को भी उतनी ही प्रतिष्ठा देनी चाहिए जितनी अन्य महापुरुषों को दी जाती है। स्कूलों, विश्वविद्यालयों, सरकारी कार्यालयों में चर्चा, समारोह और जागरूकता होनी चाहिए।

यह केवल ब्राह्मणों की बात नहीं है — यह धर्म, संस्कृति, परंपरा और राष्ट्र के आत्मगौरव की बात है।

निष्कर्ष: परशुराम केवल इतिहास नहीं, भविष्य का दर्पण हैं

परशुराम जयंती को सरकार की चुप्पी के साये में नहीं, संस्कृति के आलोक में मनाया जाना चाहिए। यह दिन केवल एक अवतार का जन्मदिवस नहीं, बल्कि हमें यह याद दिलाने का अवसर है कि जब धर्म से भटकाव होता है, तो कोई परशुराम ही होता है जो समाज को पुनः अनुशासन की राह पर लाता है।

???? “भगवान परशुराम की उपेक्षा, आत्म-संस्कृति की उपेक्षा है। समय रहते चेतना जागी तो धर्म बचेगा, नहीं तो परशुराम को फिर आना ही होगा।”

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