आचार्य डॉ. महेन्द्र शर्मा ‘महेश’, श्री गुरु शंकराचार्य पदाश्रित, पानीपत

सनातन धर्म की परंपरा केवल आस्था पर नहीं, बल्कि अत्यंत सूक्ष्म और वैज्ञानिक समय-चक्र आधारित नियमन पर आधारित है। पंचांग की तिथि, योग, नक्षत्र, वार आदि चंद्र-ज्योतिष विज्ञान के अंतर्गत आते हैं, जिनके अनुसार पर्व-त्योहार निर्धारित किए जाते हैं। यदि इनका पालन गलत तिथि पर किया जाए, तो इसके दुष्परिणामों की चेतावनी निर्णयसिंधु, धर्मसिंधु जैसे प्राचीन ग्रंथों में स्पष्ट मिलती है।

भारतवर्ष में प्रति वर्ष लगभग 1660 पर्व घटित होते हैं। लेकिन विडंबना यह है कि देश में प्रकाशित होने वाले 80 से अधिक पंचांगों और कई धार्मिक पीठों के बावजूद एक मत नहीं बन पाता। स्मार्त (गृहस्थ) और वैष्णव (संन्यासी) परंपराओं में भी मतभेद रहते हैं। गत वर्षों में दीपावली तक दो-दो दिन मनाई गई, जिससे देश भर में भ्रम की स्थिति उत्पन्न हुई। दुर्भाग्य यह है कि जिन्हें पंचांग देखना तक नहीं आता, वे दूरदर्शन पर बैठकर विद्वानों को समझा रहे हैं।

ध्यान देने की बात है कि प्रत्येक पर्व की एक विशिष्ट काल-व्याप्ति होती है, जैसे:

  • राम नवमी: मध्याह्न व्यापिनी नवमी में।
  • दशहरा: अपराह्न व्यापिनी दशमी में।
  • दीपावली: प्रदोष काल में अमावस्या हो तब।
  • कृष्ण जन्माष्टमी: निशीथ (मध्यरात्रि) की अष्टमी में।
  • शिवरात्रि और हनुमान जयंती: महानिशीथ काल की चतुर्दशी में।
  • श्राद्ध: अपराह्न व्यापिनी तिथि में।

यह स्पष्ट करता है कि पर्व केवल तिथि देखकर नहीं, काल व्यापिनी सिद्धांत के अनुसार मनाए जाते हैं। उदाहरण के लिए, जानकी नवमी पर्व तब मनाया जाता है जब नवमी तिथि मध्याह्न काल में व्याप्त हो – भले ही उदयातिथि अष्टमी हो। यही कारण है कि कभी-कभी पर्व तिथि से एक दिन पहले या बाद में मनाए जाते हैं।

यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि क्षेत्रवाद, ज्ञान का अभाव और मत-मतांतरों के कारण ब्राह्मण समाज ही पंचांगों के नियमन को भंग कर रहा है। जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी श्री निश्चलानंद सरस्वती जी से जब पूछा गया कि पर्व दो दिन क्यों मनाए जाते हैं, तो उन्होंने स्पष्ट कहा – “जिस दिन ब्राह्मण पंचांग का नियमन करने लगेंगे, उस दिन सारे पर्व एक साथ मनाए जाएंगे।”

धर्म अब केवल शोर, प्रदर्शन और दिखावे तक सीमित हो गया है। टीवी पर मिठाइयों और पटाखों की चर्चा होती है, धर्म के वैज्ञानिक आधार की नहीं। धर्म की वर्णमाला न जानने वाले लोग, धर्म की शिक्षा देने लगें, तो म्लेच्छता ही फैलती है।

सरकारें भी पर्वों को लेकर गंभीर नहीं हैं। भगवान परशुराम जयंती जैसे पर्वों पर राजकीय आयोजन न होना चिंताजनक है। कल्पना कीजिए कि यदि किसी घर में पुत्र का जन्मदिन हो और पिता कहे कि अभी दो-चार दिन बाद मना लेंगे, तो क्या स्थिति होगी? और जब यही व्यवहार भगवान के प्रति होता है, तो क्या वह धर्म है?

भगवान परशुराम कोई साधारण व्यक्तित्व नहीं, बल्कि चार कलाओं से युक्त तेजस्वी अवतार हैं – क्षमामूर्ति, तेजोवतार, क्रोधावतार और अनुशासन मूर्ति। उनके पिता ‘जमदग्नि’ – अनुशासन की आग – और माता ‘रेणुका’ – एकाग्रता की प्रतीक थीं। परशुधारी भगवान परशुराम, जिन्होंने 21 बार धरती से अन्याय का नाश कर उसे ब्राह्मणों को दान दिया, यदि उन्होंने भी क्रोध दिखाया, तो राजसत्ता को संभाल पाना असंभव हो जाएगा।

इसलिए आग्रह है – धर्म के अनुशासन में रहें। पंचांग और पर्वों के नियमन का आदर करें। वरना जो धर्म केवल व्यवहार में रह गया है, वह आत्मा से विहीन होकर विनाश का कारण बन जाएगा।

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