गुरुग्राम, 10 मई। आज जब सम्पूर्ण विश्व आतंकवाद की आग में जल रहा है, और भारत में ऑपरेशन सिंदूर जैसे महत्वपूर्ण अभियान चल रहे हैं, तो यह केवल सुरक्षा बलों का नहीं, बल्कि समाज की आत्मा का भी प्रश्न है।
आख़िर आतंकवादी पैदा कैसे होते हैं?
क्या कोई माँ अपने लाड़ले को यह आशीर्वाद दे सकती है कि “जा, किसी निर्दोष की जान ले आ!”?

नहीं। कभी नहीं।

कोई भी माँ अपने बच्चे को बर्बादी का रास्ता नहीं दिखाती। वह तो जन्म से ही उसे प्यार, सहिष्णुता और करुणा सिखाती है। लेकिन जब समाज में माँ की आवाज़ दबा दी जाती है, जब उसके निर्णय को महत्व नहीं दिया जाता, और जब उसकी भूमिका केवल रसोई या आँचल तक सीमित कर दी जाती है — तब उस समाज की जड़ें कमजोर पड़ने लगती हैं।

आतंकवाद बंदूक से नहीं, सोच से शुरू होता है। और सोच तब विकृत होती है, जब बच्चों को सही और गलत का भेद सिखाने वाली माँ, खुद उपेक्षित हो जाती है।
जहाँ माँ की ममता का सम्मान नहीं होता, वहाँ बच्चे मार्गदर्शन के लिए भटकते हैं — और फिर कट्टरता, नफ़रत और हिंसा उन्हें अपने जाल में फंसा लेती है।

इतिहास पर नज़र डालें तो जिन क्षेत्रों में महिलाओं, विशेषकर माताओं को सम्मान और निर्णय की शक्ति नहीं दी गई, वहाँ उग्र विचारधाराओं ने अधिक आसानी से ज़मीन पकड़ी।
क्योंकि जब ममता की देवी चुप हो जाती है, तब दानवों की आवाज़ तेज़ हो जाती है।

मातृदिवस पर यह सोचने का समय है कि केवल एक दिन माँ को फूल देने से उसका कर्तव्य पूरा नहीं होता।
हमें माँ को केवल घर की ‘शक्ति’ नहीं, समाज की ‘दिशा’ भी बनाना होगा।
हमें माँ को निर्णय की कुर्सी पर बैठाना होगा — ताकि वह हर घर में एक प्रहरी बन सके, जो अपने बच्चे को चरमपंथ नहीं, चरित्र की ओर ले जाए।

यदि हर माँ के पास इतना आत्मबल, और हर समाज में इतनी समझ हो कि वो माँ की भूमिका को सर्वोच्च माने — तो न कोई बच्चा हथियार उठाएगा, न किसी को ऑपरेशन सिंदूर चलाना पड़ेगा।

“जिस समाज में माँ की दुआओं की गूंज होती है,
वहाँ नफ़रत नहीं, बस अमन की धूप होती है।”

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