ऋषि प्रकाश कौशिक

भारत की सनातन परंपरा में साधु शब्द मात्र एक लिबास का प्रतीक नहीं, बल्कि त्याग, तपस्या, वैराग्य और समत्व की जीवंत प्रतिमा है। जिनका जीवन सांसारिक मोह से परे, आत्मिक साधना और लोककल्याण के लिए समर्पित हो, वही सच्चे अर्थों में साधु कहलाने योग्य होते हैं। किंतु वर्तमान जीवन शैली में साधुता भी एक “स्थिति” बनकर रह गई है—एक ऐसा पद या पहचान जिसे धारण कर कोई भी व्यक्ति, चाहे वह योग्यता रखता हो या नहीं, समाज में प्रभावशाली बनने की चेष्टा करता है।

साधुता : केवल वस्त्र नहीं, एक जीवन दर्शन है

आज साधु बनना कुछ लोगों के लिए सम्मान और सत्ता के समीकरण साधने का मार्ग बन गया है। भगवा वस्त्र धारण करना, ‘महा मंडलेश्वर’, ‘जगदगुरु’, ‘श्रीश्री 108’ जैसी उपाधियाँ जोड़ लेना, और फिर जनमंचों पर बैठकर समाज को दिशा देने का दावा करना—यह परंपरा अब आलोचना के घेरे में है। क्योंकि जब साधु स्वयं ही जाति, वर्ग, राजनीतिक पक्षधरता, व्यक्तिगत स्वार्थ और बाह्य प्रदर्शन में उलझ जाएं, तो उनका तप और त्याग संदिग्ध हो जाता है।

क्या एक साधु को जाति-पाति की बात करनी चाहिए?

निश्चित रूप से नहीं। एक साधु का पहला कर्तव्य होता है आत्मा और परमात्मा के बीच सेतु बनना। जब वह जाति-पाति, ऊंच-नीच और सामाजिक विभाजन को मान्यता देता है या उसका समर्थन करता है, तो वह अध्यात्म की आत्मा के विरुद्ध चलता है। सनातन धर्म में भगवान शंकर से लेकर भगवान बुद्ध तक सभी ने समानता और समरसता का पाठ पढ़ाया है। जो साधु ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का जाप करते हैं और फिर सामाजिक भेदभाव में संलग्न रहते हैं, वे स्वयं अपने आचरण का खंडन कर रहे होते हैं।

क्या साधु को सरकार का भक्त बन जाना चाहिए?

साधु समाज का प्रहरी होता है, सत्ता का नहीं। एक सच्चा संत सत्ता की नीतियों पर निष्पक्ष दृष्टि रखता है—जो नीति जनहित में हो, उसका समर्थन करता है, और जो अन्यायपूर्ण हो, उसका विरोध करता है। लेकिन जब साधु सत्ताधीशों के चरणों में लोटने लगते हैं, तो वे अपना आत्मबल खो देते हैं। सत्ता के समीप जाकर जब कोई साधु व्यक्तिगत स्वार्थ साधने लगे, तब वह राजदूत हो सकता है, राष्ट्रगुरु नहीं।

क्या साधु को किसी विशेष व्यक्ति या वर्ग के प्रति लगाव रखना चाहिए?

नहीं। साधु का हृदय निष्पक्ष, निरपेक्ष और समदर्शी होता है। वह सबमें ईश्वर का अंश देखता है। वह किसी व्यक्ति, पार्टी, जाति या सम्प्रदाय से व्यक्तिगत लगाव नहीं रखता—क्योंकि उसका प्रेम व्यापक और सार्वभौमिक होता है। यदि कोई साधु अपने प्रवचनों में विशेष व्यक्तियों की स्तुति और दूसरों की निंदा करता है, तो वह नीति-धर्म से गिरा हुआ साधु है।

साधु का वास्तविक धर्म क्या है?

  • जन-जागरण करना
  • समाज में समरसता फैलाना
  • निर्बल, वंचित, उपेक्षित वर्गों की आवाज़ बनना
  • अध्यात्म के माध्यम से लोगों को आंतरिक शांति देना
  • नारी सम्मान, पर्यावरण संरक्षण, शिक्षा व नैतिकता जैसे विषयों पर कार्य करना

साधु का जीवन ‘त्यागमय कर्मयोग’ होना चाहिए—जहां वह समाज को दिशा देता है, शासन को आईना दिखाता है, और आत्मशांति से जनशक्ति को जोड़ता है।

यदि साधु का जीवन ही अनुसरण योग्य न हो तो…?

यदि कोई साधु शराब पीता है, भोग-विलास में लिप्त है, महिला शिष्यों के साथ अनैतिक संबंध रखता है, राजनीति के खेल में शामिल होकर व्यक्तिगत प्रचार करता है, या व्यावसायिक साधु बनकर मठों-आश्रमों को व्यापारिक केंद्रों में बदल देता है—तो उसके प्रवचन समाज को नैतिकता नहीं, ढोंग सिखाते हैं।

ऐसे साधु समाज के लिए लाभदायक नहीं, घातक होते हैं। वे धर्म की आड़ में अधर्म को बढ़ावा देते हैं। उनका प्रभाव युवाओं को अध्यात्म से दूर करता है और संदेह की दीवारें खड़ी करता है। इससे पूरे संत समाज की छवि धूमिल होती है।

समाप्ति विचार : साधु वही जो ‘साधना’ करे

साधु बनना आसान है, लेकिन साधु होना कठिन। वह न तो किसी विशेष विचारधारा का वाहक होता है, न किसी दल या जाति का प्रचारक। उसका जीवन ‘न दैन्यं न पलायनम्’ के भाव पर टिका होता है—ना तो वह भिक्षु है, ना योद्धा; वह तो समाज का आत्मिक दीपक है।

यदि आज भी कुछ संत समाज के लिए सचमुच तप कर रहे हैं, समर्पित हैं—तो उनके तप को सलाम और समाज से यही अपील कि साधु की पहचान उसके वेश से नहीं, उसके कर्म से करें।

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