आचार्य डॉ. महेन्द्र शर्मा

“धर्म पर न चलेंगे तो धर्म ही नाश कर देगा” — यह कोई मात्र श्लोक नहीं, बल्कि समूचे भारतीय दर्शन और इतिहास का चेतावनी स्वर है। सनातन धर्म की मूल चेतना कहती है कि धर्म ही जीवन का आधार है, और जब यह संतुलन टूटता है, तो विनाश अवश्यम्भावी हो जाता है।
“अग्नि शेषं ऋणं शेषं शत्रु शेषं तथैव च।
पुनः पुनः प्रवर्धेत तस्मात् शेष न कारयेत्।।”
यह श्लोक हमें बताता है कि बची हुई आग, बाकी बचा कर्ज़ और जीवित शत्रु — ये तीनों समय के साथ विकराल रूप धारण कर लेते हैं। इन्हें कभी अधूरा न छोड़ें। यह नीति केवल व्यक्तिगत जीवन ही नहीं, वरन् राष्ट्रनीति पर भी लागू होती है।
श्रद्धा और विवेक का संतुलन
सनातनधर्मियों में भक्ति गहराई तक समाई है, परंतु यदि यह भक्ति विवेकहीन हो जाए तो वह केवल अंधभक्ति बनकर रह जाती है। जब तक हम धर्म का गहन अध्ययन नहीं करेंगे, तब तक केवल ‘ईश्वर सब ठीक कर देंगे’ सोचकर बैठ जाना एक आत्मघाती भ्रम बन जाता है।
जैसे श्रीरामचरितमानस में कहा गया है —
“सचिव बैद गुरु तीन जो प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगि नास।।”
वहीं चाणक्य नीति भी यही कहती है कि अगर गलत को टालोगे, तो वह नास का कारण बन जाएगा। चाहे वह शासन हो, समाज हो या परिवार।
इतिहास से सीखें — महाभारत और इंदिरा गांधी का पराक्रम
महाभारत काल में श्रीकृष्ण ने शांति का प्रस्ताव दिया था, पर जब अहंकार की सीमा पार हुई, तब धर्म की रक्षा हेतु युद्ध ही एकमात्र मार्ग बना। शिशुपाल के 100 अपराधों के बाद उसका वध हुआ — यह दर्शाता है कि धर्म सहिष्णु है, पर कमजोर नहीं।
स्वतंत्र भारत में भी एक ऐसा उदाहरण श्रीमती इंदिरा गांधी ने प्रस्तुत किया। जब अमेरिका के राष्ट्रपति निक्सन ने भारत पर दबाव डालने का प्रयास किया, तब उन्होंने बिना भय के उसे अनदेखा कर बांग्लादेश को स्वतंत्र करवाया और युद्ध के बाद भी कोई राजनीतिक लाभ नहीं लिया।
धर्म को राजनीति नहीं, राजनीति को धर्म बनाना चाहिए
आज की स्थिति उलट है। हम धर्म को वोट बैंक बना रहे हैं, बिना उसे आत्मसात किए। हम सनातनधर्मी होकर भी उस गहराई से अनभिज्ञ हैं जो राजनीति को धर्मसम्मत बना सकती है। यह अधकचरा ज्ञान और दिखावटी भक्ति हमें और राष्ट्र को हानि पहुंचा रही है।
हमने पाकिस्तान को कई बार जीवनदान दिया, पर क्या परिणाम मिला? क्या हमने कभी यह आत्ममंथन किया कि क्यों हमने उन्हें छोड़ा? क्या हमने पहलगाम के शहीदों के घर जाकर उनके बलिदान की सुध ली? क्या हमने शिमला समझौते की शर्तों और युद्धविराम की समीक्षा की?
राष्ट्रनीति में ‘मीरी-पीरी’ का सिद्धांत हो
गुरु हरगोबिंद जी ने ‘मीरी और पीरी’ का जो सिद्धांत दिया था — यानी धर्म और शक्ति का संतुलन — आज उसकी आवश्यकता है। धर्म और पराक्रम जब एक साथ चलते हैं, तभी राष्ट्र की रक्षा होती है।
रामायण कहती है:
“शरणागत को जे तजहिं, निज अनहित अनुमानि।
ते नर पापमय देह धरि, यम के पाथे सिधारनि।।”
परंतु इस ‘शरणागत नीति’ का भी सीमित और विवेकी प्रयोग होना चाहिए — कहीं ऐसा न हो कि हम दया दिखा कर राष्ट्र को संकट में डाल दें।
उपसंहार
ते नर पावर पापमय तिन्ही, बिलोकत हानि ll इंदिरा गांधी ने शरणागत बांग्लादेश नागरिकों को ससम्मान वापिस भेजा l आज का यथार्थ यह है कि हम धर्म का केवल उपयोग कर रहे हैं, पालन नहीं। यदि हमने धर्म का सही अर्थ नहीं समझा और उसे जीवन में लागू नहीं किया, तो यही धर्म एक दिन हमारा नाश कर देगा। धर्म का रक्षण करना केवल भगवान की जिम्मेदारी नहीं, हम सभी का दायित्व है — चाहे हम नागरिक हों, संत हों या शासक।