भारत सारथि / ऋषि प्रकाश कौशिक

30 मई 2025, गुरुग्राम – पहलगाम की वादियों में हाल ही में घटी आतंकवादी घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। हमारे कई बहादुर सैनिकों ने मातृभूमि की रक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहुति दी। उनके बलिदान को शब्दों में नहीं समेटा जा सकता—वह गर्व और पीड़ा, दोनों का सम्मिलित स्वर है। भारतीय सेना ने जिस साहस और दृढ़ता के साथ आतंकवादियों को मुँहतोड़ जवाब दिया, वह निश्चित रूप से राष्ट्र की सुरक्षा के प्रति उसकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
लेकिन युद्ध केवल गोलियों और बंदूकों का ही नहीं होता। उसकी एक अदृश्य परछाईं भी होती है—जो समाज के मनोविज्ञान, परिवारों के भविष्य और देश की दिशा को प्रभावित करती है। ऐसी स्थिति में यदि कोई युद्धविराम या संवाद की बात करता है, तो वह केवल रणनीतिक नहीं, मानवीय दृष्टिकोण से भी सराहनीय होता है।
हालांकि, इस गहन राष्ट्रीय संकट के बीच जो घटनाक्रम राजनीतिक गलियारों में उभर रहा है, वह न केवल चिंताजनक है बल्कि आत्ममंथन की माँग भी करता है। भारतीय जनता पार्टी द्वारा पहले तिरंगा यात्रा जैसे आयोजनों के ज़रिए देशभक्ति को जनजागरण का रूप देना एक हद तक समझा जा सकता है। लेकिन अब जो खबरें सामने आ रही हैं—कि बीजेपी कार्यकर्ता घर-घर जाकर ‘मोदी की तरफ से सिंदूर’ बाँटेंगे—वह कई सवाल खड़े करती है।
सिंदूर, जो भारतीय नारी की आस्था, प्रेम और विवाह का पवित्र प्रतीक है, उसे राजनीतिक प्रचार सामग्री बनाना क्या हमारी सांस्कृतिक मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं है? क्या यह उस वेदना और संकल्प की अवमानना नहीं है, जो एक सैनिक की पत्नी के सिंदूर में समाहित होती है?
यहां प्रश्न किसी एक पार्टी विशेष पर नहीं है—यह उस सोच पर है, जो बलिदान को भावनात्मक उत्पाद में बदलने लगती है। राम मंदिर निर्माण के नाम पर ‘श्रद्धा’ का राजनीतिकरण करने के बाद अब अगर सिंदूर जैसे नितांत व्यक्तिगत और पवित्र प्रतीक को प्रचार का माध्यम बनाया जा रहा है, तो यह एक नैतिक जिम्मेदारी नहीं, बल्कि नैतिक पतन की ओर बढ़ते क़दम जैसा प्रतीत होता है।
राजनीति का कर्तव्य है देश की सेवा करना, शहीदों के सम्मान की रक्षा करना—not their memories to be marketed. यदि शहीदों की स्मृति भी नारे और प्रचार सामग्री में बदलने लगे, तो यह लोकतंत्र की आत्मा के लिए एक गंभीर खतरा है।
आज भारत एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है, जहाँ देशभक्ति और दल-भक्ति के बीच की रेखा धुंधली होती जा रही है। यह समय है सोचने का—कि क्या हम श्रद्धा को भी अब रणनीति में बदलने देंगे? क्या हम शौर्य को भी सत्ता के पोस्टर में समेट देंगे?
उत्तर जनता को देना है, और वह जरूर देगी—क्योंकि लोकतंत्र की असली ताक़त चुनाव नहीं, चेतना होती है। और जब चेतना जागती है, तो कोई भी राजनीतिक चतुराई सत्य की आँखों से बच नहीं पाती।