सुरेश गोयल धूप वाला 

पिछले कुछ वर्षों में देशभर में सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है। इन संस्थाओं का मूल उद्देश्य समाज सेवा और जनकल्याण होता है। कई संस्थाएँ आज भी इसी भावना से प्रेरित होकर सक्रिय हैं और अपने संसाधनों के साथ तन, मन, और धन से समाज के विभिन्न वर्गों के कल्याण के लिए कार्य कर रही हैं। इनके सदस्य स्वार्थ से ऊपर उठकर ज़रूरतमंदों की सहायता करने में जुटे रहते हैं। चाहे प्राकृतिक आपदाओं का समय हो, स्वास्थ्य शिविर लगाना हो, निर्धन बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था करनी हो या धार्मिक आयोजन — ये संस्थाएँ समाज की रीढ़ बनकर खड़ी रहती हैं।

लेकिन दुर्भाग्यवश, अधिकाँश संस्थाएँ ऐसी भी हैं, जो समय के साथ अपने मूल उद्देश्य से भटक जाती हैं। कई बार देखा गया है कि इन संस्थाओं के भीतर आपसी तालमेल की कमी, पद-प्रतिष्ठा की होड़ और नेतृत्व की दौड़ इतनी बढ़ जाती है कि संगठन के सदस्य आपस में ही उलझ जाते हैं। कई संस्थाएँ आए दिन अखबारों की सुर्ख़ियों में इसीलिए बनी रहती हैं, क्योंकि उनके बीच जूतम-पैजार की घटनाएँ होती रहती हैं। इन झगड़ों की जड़ अक्सर ‘चौधर’ यानी वर्चस्व की लड़ाई होती है। हर कोई संस्था का मुखिया या प्रभावशाली चेहरा बनना चाहता है, जिससे उसकी सामाजिक हैसियत बढ़े।

इतना ही नहीं, कई संस्थाओं पर वित्तीय अनियमितताओं के आरोप भी लगते रहते हैं। यह आरोप कोई बाहरी व्यक्ति नहीं, बल्कि संस्था के ही सदस्य एक-दूसरे पर लगाते हैं। अनुदान और चंदे के पैसों के दुरुपयोग की खबरें आए दिन सुनने को मिलती हैं। परिणामस्वरूप, ऐसी संस्थाओं से आम जनता का भरोसा उठने लगता है। जब एक संस्था अपने निजी स्वार्थों और आंतरिक कलह में उलझ जाती है, तो उसका समाज सेवा का उद्देश्य पीछे छूट जाता है।

कई बार ये विवाद इतने बढ़ जाते हैं कि मामला अदालतों तक जा पहुँचता है। जहाँ एक संस्था समाज के कल्याण के लिए खड़ी की गई थी, वही संस्था अपने सदस्यों की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ जाती है। ऐसी स्थिति में संस्था का बिखरना लगभग तय हो जाता है। इसलिए ज़रूरी है कि सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं में पारदर्शिता, आपसी समन्वय और निस्वार्थ सेवा की भावना बनी रहे, ताकि वे समाज के भरोसे पर खरा उतर सकें और देश की सच्ची सेवा कर सकें।

Share via
Copy link