आचार्य डॉ. महेन्द्र शर्मा ‘महेश’

आज जब धर्म, संस्कृति और पहचान के सवाल को राजनीतिक नारों में बदल दिया गया है, तो यह विचार करना अनिवार्य हो जाता है कि वास्तव में हमारे धर्म का नाम क्या है?
हम स्वयं को “हिन्दू” कहते हैं — पर यह शब्द वैदिक ग्रंथों में कहीं नहीं आता। यह शब्द मूलतः “सिंधु” से निकला है — जो ईरानियों और ग्रीकों की भाषा में अपभ्रंश होकर हिंदू और इंडिया बना। यह तो एक भौगोलिक पहचान थी — उन लोगों की जो सिंधु नदी के पार रहते थे। लेकिन क्या हमारी संस्कृति केवल भौगोलिक पहचान तक सीमित है?
हमारे धर्म की आत्मा “सनातन” है — जो न कभी प्रारंभ हुआ, न कभी समाप्त होगा। यह केवल आस्था नहीं, बल्कि जीवन का शाश्वत सिद्धांत है। यही कारण है कि इसे “सनातन धर्म” या “वैदिक धर्म” कहा गया। इसकी कोई एक प्रतिपादक हस्ती नहीं, बल्कि इसे आत्मज्ञान से जाग्रत ऋषियों ने देखा, समझा और समाज को बताया।
वेदों के मंत्र लिखे नहीं गए — वे सुने गए। उन्हें ‘श्रुति’ कहा गया। ऋषियों ने स्वयं स्वीकार किया कि वे केवल द्रष्टा (seer) हैं, रचयिता नहीं। मंत्रों का साक्षात्कार उन्होंने ‘आकाश’ में किया। इसीलिए वेद “अपौरुषेय” कहे गए — यानी किसी मानव द्वारा रचित नहीं, परमेश्वर के नि:श्वास से प्रकट।
हमारा धर्म: सनातन और सार्वकालिक
ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता और उपनिषद बार-बार इसी सनातन सत्य की पुष्टि करते हैं। गीता के 15वें अध्याय में श्रीकृष्ण कहते हैं:
“ऊर्ध्वमूलमध: शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।।”
इस संसार रूपी अश्वत्थ वृक्ष की जड़ें ऊपर (परमात्मा) में हैं और शाखाएँ नीचे। वेद इसके पत्ते हैं और जो इसे जानता है वही सच्चा वेदवित है। यहां ‘हिंदू’ शब्द नहीं है — केवल सत्य, धर्म, ज्ञान, भक्ति और समर्पण का दर्शन है।
धर्म कोई पंथ नहीं, जीवन मूल्य है
बौद्ध, जैन, सिख धर्म भी इसी सनातन सिद्धांतों की शाखाएं हैं — जिन्हें युगधर्म कहा जा सकता है। उन्होंने सत्य, अहिंसा, सेवा या तपस्या के कुछ तत्वों को प्रमुखता दी, पर मूल आधार वही सनातन है।
आज जब हम धर्म के नाम पर तलवारें बांट रहे हैं, तो यह याद रखना होगा कि श्रीकृष्ण ने जब सृष्टि के अंत की भूमिका रची थी, तब यदुवंशियों को सरकंडों से आपस में लड़वाकर विनाश की ओर मोड़ा था। क्या हम उसी विनाश की ओर बढ़ रहे हैं? क्या हम अपनी श्रीमद्भगवद्गीता और वेद को भूल चुके हैं?
धर्म का अर्थ सेवा है, सत्ता नहीं
धर्म के नाम पर राजनीति और सत्ता का लालच बढ़ता जा रहा है। धर्म का अर्थ कभी भी “राज करने की पिपासा” नहीं रहा — यह “परहित” रहा है:
“परहित सरस धर्म नहीं भाई।”
“सेवया धर्म सिद्धिश्च…”
हमारा धर्म कहता है कि सेवा से धर्म सिद्ध होता है, यश मिलता है और उसी से सच्ची कामना पूर्ण होती है। लेकिन आज धर्म के नाम पर सत्ता, लालच और बँटवारा हो रहा है।
समाज सेवा से बचेगा धर्म
धर्म का रक्षण केवल बहसों और नारों से नहीं होगा — बल्कि अभावग्रस्तों की सेवा, गरीबों को शिक्षा, चिकित्सा, रोटी-कपड़ा-मकान, स्वाभिमान देना — यही असली धर्म है। धर्मांतरण का उत्तर उपेक्षा नहीं, सेवा है। यदि सनातन धर्म समाज को न्याय और समृद्धि देगा, तो वह स्वयं सिद्ध होकर फलेगा-फूलेगा।
निष्कर्ष: सत्य शाश्वत है, धर्म उसी की खोज है
सत्य को कोई मिटा नहीं सकता। यदि आप झूठ भी बार-बार बोलते हैं, तो वह भी सत्य ही है कि आप झूठ बोलते हैं। सत्य ही धर्म है, धर्म ही ईश्वर है, और ईश्वर ही सनातन है।
तो आइए — स्वयं से यह प्रश्न करें कि हम “हिंदू” हैं, या “सनातनी”? हम धर्म के अनुयायी हैं या सत्ता के प्यासे?
धर्म को बचाना है तो उसे राजनीतिक घोषणाओं से नहीं, सेवा, सत्य और समर्पण से जीवित रखना होगा।