– सुरेश गोयल ‘धूप वाला’

हमारे समाज में बुजुर्गों का स्थान अत्यंत गरिमामय और पूज्यनीय है। वे केवल परिवार के मुखिया नहीं होते, बल्कि अनुभव, संस्कार और जीवन दृष्टि के अक्षय स्रोत भी हैं। उनके जीवन का हर अध्याय नई पीढ़ी के लिए एक मार्गदर्शक दीपक की तरह है, जो अंधेरे में भी रास्ता दिखाता है।

उपेक्षा नहीं, आवश्यकता है स्नेह और साथ की

आज के तेज़ रफ्तार जीवन में, जब तकनीक और व्यस्तता ने हमारे जीवन को घेर लिया है, तब बुजुर्गों की उपेक्षा एक गंभीर सामाजिक चुनौती बनती जा रही है। यह भूल जाना कि उन्होंने ही हमारी नींव रखी है, हमारी सबसे बड़ी भूल है। उनके पास अनमोल जीवन अनुभव होते हैं जो नई पीढ़ी को सही दिशा देने में सहायक होते हैं।

संस्कारों का पहला पाठ: बुजुर्गों के संग

बुजुर्गों की सेवा और देखभाल केवल कर्तव्य नहीं, बल्कि हमारी संवेदनशीलता और संस्कृति की परीक्षा भी है। बच्चों में जब सहानुभूति, अनुशासन और आदर भाव जगाना हो, तो उन्हें दादा-दादी या नाना-नानी के सान्निध्य में रखना सबसे प्रभावी तरीका है। यही तो वे संस्कार हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी आदर का व्यवहार सिखाते हैं

कहानी जो याद रह गई — “मिट्टी की थाली”

प्रसिद्ध कहानी का उल्लेख करना जरूरी है, जिसमें एक छोटा बच्चा अपने दादा के लिए मिट्टी की थाली बनाता है, क्योंकि उसने देखा था कि उसके माता-पिता उसी में दादा को खाना परोसते थे। यह केवल एक बालक की मासूम हरकत नहीं, बल्कि समाज को आईना दिखाने वाली घटना है – “जैसा बोओगे, वैसा काटोगे।”

बुजुर्गों का साथ: परिवार की मजबूती

बुजुर्गों की उपस्थिति परिवार की एकता और मानसिक स्थिरता का आधार होती है। वे न केवल परिवार को जोड़कर रखते हैं, बल्कि चुनौतियों से जूझने की प्रेरणा भी देते हैं। हमें चाहिए कि हम उन्हें तिरस्कार नहीं, बल्कि मान-सम्मान दें, क्योंकि यदि हम आज उन्हें आदर नहीं देंगे, तो कल वही व्यवहार हमें अपने बच्चों से देखने को मिलेगा।

निष्कर्ष: आदर ही असली संस्कार है

बुजुर्गों को आदर देना हमारी संस्कृति की गौरवमयी परंपरा है। यदि हम अपने जीवन में उनके अनुभवों और मार्गदर्शन को स्थान दें, तो न केवल परिवार सशक्त होगा, बल्कि समाज में भी सकारात्मक परिवर्तन आएंगे।

आइए, आज हम सभी यह संकल्प लें कि हम बुजुर्गों के सम्मान को अपना धर्म, दायित्व और कर्तव्य समझें, और उसे पूरे मन से निभाएं।

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