— अरविंद सैनी, भाजपा प्रदेश मीडिया प्रभारी

6 जुलाई— डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जीवन केवल एक व्यक्ति की गाथा नहीं, बल्कि एक विचार, एक आंदोलन और एक संकल्प का प्रतीक है। उनकी 123वीं जयंती के अवसर पर हम उन्हें श्रद्धा से नमन करते हैं, जिन्होंने राष्ट्र की एकता, अखंडता और गौरव की रक्षा हेतु अपने प्राणों का भी उत्सर्ग कर दिया।

वे एक साथ शिक्षाविद्, लेखक, सांसद, प्रशासक, मानवतावादी और कट्टर देशभक्त थे। मात्र 33 वर्ष की आयु में कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बनकर उन्होंने अपनी बौद्धिक क्षमता का लोहा मनवाया। वे स्वतंत्र भारत के निर्माणकर्ताओं में अग्रणी थे, जिन्होंने राष्ट्र की आत्मा को पहचानते हुए ‘भारत प्रथम’ के विचार को जिया।

भारत की एकता के लिए जीवनदायिनी आवाज़

डॉ. मुखर्जी का मानना था कि भारत का राष्ट्रत्व सनातन हिंदू मूल्यों से प्रेरित है, जो किसी भी पंथ या मजहब के विरोध में नहीं बल्कि समावेश के पक्ष में है। उन्होंने कहा था, “हां, मैं हिंदू हूं, पर इसका अर्थ यह नहीं कि मैं किसी उपासना पद्धति के विरोध में हूं।” कश्मीर को लेकर उनका स्पष्ट और अडिग विचार था—”कश्मीर हर हिंदुस्तानी का है।”

जब प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने विभाजन के बाद पाकिस्तान से आए हिंदुओं की पीड़ा को नजरंदाज किया और लियाकत अली के साथ समझौता कर लिया, तब डॉ. मुखर्जी ने सिद्धांतों से समझौता न करते हुए उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री के पद से त्यागपत्र दे दिया। यह त्याग मात्र पद का नहीं था, बल्कि यह त्याग उस मूल्यहीन राजनीति का था जो राष्ट्रहित से ऊपर सत्ता को रखती है।

भारतीय जनसंघ की स्थापना—राष्ट्रीय विपक्ष का आगाज़

त्यागपत्र देने के बाद उन्होंने महसूस किया कि एक सशक्त राष्ट्रनिर्माण के लिए वैचारिक रूप से दृढ़ विपक्ष का होना आवश्यक है। इसी दृष्टिकोण से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहयोग से 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना की। यह वही विचारधारा थी जिसने आगे चलकर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के रूप में आकार लिया।

“एक देश में दो विधान, दो निशान, दो प्रधान – नहीं चलेंगे!”

1952 में जब जम्मू-कश्मीर के लिए अलग संविधान, झंडा और प्रधानमंत्री की व्यवस्था बनी, तब उन्होंने इसे राष्ट्र की एकता के खिलाफ मानते हुए प्रजा परिषद् आंदोलन का नेतृत्व किया। उन्होंने गर्जना की—
“एक देश में दो निशान, एक देश में दो प्रधान, एक देश में दो विधान – नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगे!”

उन्होंने 11 मई 1953 को बिना परमिट के जम्मू-कश्मीर प्रवेश कर नेहरू सरकार और शेख अब्दुल्ला की सरकार को सीधी चुनौती दी। उन्हें लखनपुर सीमा पर गिरफ्तार कर श्रीनगर की जेल में डाल दिया गया, जहां उन्हें 40 दिनों तक उचित चिकित्सा भी नहीं दी गई। अंततः 23 जून 1953 को उन्होंने जेल में रहस्यमय परिस्थितियों में प्राण त्याग दिए।

मोदी सरकार ने दिया सच्ची श्रद्धांजलि

डॉ. मुखर्जी के बलिदान को सच्ची श्रद्धांजलि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 और 35A को हटाकर दी। यह कदम एक राष्ट्र, एक संविधान और एक कानून के संकल्प की पूर्ति थी, जिसे डॉ. मुखर्जी ने अपने जीवन की अंतिम सांस तक जिया।

आज, जब हम उन्हें याद करते हैं, तो यह समझना आवश्यक है कि डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी केवल एक नाम नहीं, बल्कि राष्ट्रवाद की वह मशाल हैं, जो पीढ़ियों तक भारत की अखंडता और एकता का मार्ग रोशन करती रहेगी।

श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए हम संकल्प लें कि उनके दिखाए मार्ग पर चलकर भारत को फिर से विश्वगुरु बनाएंगे।
अरविंद सैनी, भाजपा प्रदेश मीडिया प्रभारी

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