— फतह सिंह उजाला, पटौदी

पटौदी। शुक्रवार को पटौदी लघु सचिवालय में ‘आपातकाल के 50 वर्ष’ पर आयोजित प्रदर्शनी के दौरान एक ऐसा दृश्य देखने को मिला जिसने न केवल हैरानी पैदा की बल्कि प्रशासनिक मर्यादा और संवैधानिक प्रोटोकॉल को लेकर गंभीर सवाल भी खड़े कर दिए।

पटौदी से भाजपा की विधायक बिमला चौधरी, एसडीएम कार्यालय में उस अधिकारिक कुर्सी पर बैठी नजर आईं जो कि हरियाणा सिविल सेवा (एचसीएस) अधिकारी के लिए आरक्षित होती है। उन्होंने इस कुर्सी पर बैठकर पत्रकारों के सवालों के जवाब भी दिए। उनके साथ भाजपा के पटौदी मंडल के घोषित जिला अध्यक्ष अजीत यादव भी उपस्थित रहे और उन्होंने भी उसी परिसर में मीडिया से बात की।

यह दृश्य केवल एक प्रतीकात्मक उपस्थिति नहीं, बल्कि एक संवैधानिक मर्यादा से जुड़ा सवाल बन गया है। जानकारों का कहना है कि प्रशासनिक पदों की सीमाएं और गरिमा संविधान व सेवा नियमों द्वारा निर्धारित होती हैं। ऐसे में विधायक द्वारा एसडीएम की कुर्सी पर बैठना न केवल प्रोटोकॉल का उल्लंघन माना जा सकता है, बल्कि यह कार्यपालिका की स्वायत्तता पर भी प्रश्नचिह्न लगाता है।

प्रशासनिक विशेषज्ञ की राय

वरिष्ठ प्रशासनिक विश्लेषक डॉ. राघवेंद्र प्रताप सिंह के अनुसार, “यह केवल कुर्सी का सवाल नहीं है, यह अधिकार, जिम्मेदारी और उत्तरदायित्व की स्पष्ट रेखाओं का सवाल है।”

वे कहते हैं कि अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों की भूमिकाएं अलग-अलग हैं और दोनों की गरिमा बनाए रखना लोकतांत्रिक संतुलन के लिए आवश्यक है। यदि अधिकारी की कुर्सी पर जनप्रतिनिधि बैठेगा, तो संस्थागत मर्यादा और प्रशासनिक स्वायत्तता कमजोर होगी।

डॉ. सिंह के अनुसार, प्रोटोकॉल के तहत प्रशासनिक बैठकों में जनप्रतिनिधियों के लिए अलग स्थान निर्धारित किया जाता है, लेकिन अधिकारी की अधिकारिक कुर्सी पर बैठना उचित नहीं कहा जा सकता।

कानूनी विशेषज्ञ की टिप्पणी

हरियाणा उच्च न्यायालय के अधिवक्ता अंशुल तायल का कहना है:

“विधायक का एसडीएम की अधिकारिक कुर्सी पर बैठना सीधे तौर पर सेवा नियमों और संवैधानिक पद की गरिमा का उल्लंघन है।”

वे बताते हैं कि संविधान के अनुच्छेद 50 के तहत कार्यपालिका और विधायिका के बीच स्पष्ट विभाजन है। ऐसे मामलों में प्रतीकात्मक अतिक्रमण भी संवैधानिक मर्यादा को ठेस पहुंचाता है। उनका सुझाव है कि सरकार को इस विषय में स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी करने चाहिए ताकि ऐसी स्थितियों से बचा जा सके।

अब सवाल यह है…

क्या यह मात्र एक “आदर और सम्मान” का प्रतीक था, या एक प्रशासनिक परंपरा का उल्लंघन?
क्या विधायक का प्रशासनिक अधिकारी की अधिकारिक कुर्सी पर बैठना संविधान की मर्यादाओं के अनुरूप है?
और सबसे अहम – क्या ऐसी घटनाएं कार्यपालिका और विधायिका के बीच संतुलन को बिगाड़ने का काम नहीं करतीं?

यह घटना ‘कुर्सी’ से ज़्यादा ‘मर्यादा’ की है।
लोकतंत्र में संस्थाओं की गरिमा तभी सुरक्षित रह सकती है जब सभी पक्ष अपनी-अपनी सीमाओं का सम्मान करें।

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