ऋषि प्रकाश कौशिक

“बिना पर्ची, बिना खर्ची” — यह नारा जितना सरल और भरोसेमंद प्रतीत होता है, असल में उतना ही छलपूर्ण और खोखला साबित हो रहा है।
हाल ही में एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय समाचार पत्र द्वारा की गई जांच में यह सामने आया कि हरियाणा-पंजाब उच्च न्यायालय में नियुक्त 97 सरकारी अधिवक्ताओं में से कम-से-कम 23 ऐसे हैं जिनका सीधा संबंध न्यायपालिका, नौकरशाही और सत्तारूढ़ दलों के प्रभावशाली परिवारों से है।
यह खुलासा महज़ एक आंकड़ा नहीं, बल्कि उस जनतांत्रिक व्यवस्था पर सीधा प्रश्नचिह्न है जो ‘योग्यता आधारित अवसर’ का दावा करती है।
रिश्तेदारी का राजपथ, योग्यता का गर्त
जिन 23 अधिवक्ताओं की पृष्ठभूमि जांच में उजागर हुई है, उनमें से सात उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के परिजन हैं, सात का संबंध वरिष्ठ प्रशासनिक या पुलिस अधिकारियों से है, और सात सत्ताधारी दल के नेताओं-मंत्रियों के रिश्तेदार हैं।
यहां सवाल उनकी योग्यता का नहीं है, सवाल यह है कि—क्या ये नियुक्तियां उसी पारदर्शी प्रक्रिया से हुईं, जिससे एक सामान्य अभ्यर्थी को गुजरना पड़ता है?
क्या इन पदों के लिए कोई सार्वजनिक विज्ञापन दिया गया?
क्या कोई खुली प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षा आयोजित हुई?
अगर नहीं—तो यह चयन प्रक्रिया नहीं, बल्कि सिफारिश आधारित बंद दरवाज़ों की सौदेबाज़ी है।
लोकतंत्र नहीं, “तंत्र” का चेहरा
यह परिघटना कोई नई नहीं है। वर्षों से प्रशासनिक पदों, न्यायिक नियुक्तियों, विश्वविद्यालयी नौकरियों और सरकारी ठेकों में संबंध, सिफारिश और सत्ता की भूमिका निर्णायक रही है।
वहीं, एक सामान्य परिवार का युवा—जिसने वर्षों मेहनत कर किताबों के पन्ने चाटे, पुस्तकालयों की धूल फांकी, और परीक्षा दर परीक्षा असफलता झेली—उसे अंततः एक चपरासी या डाटा एंट्री ऑपरेटर की नौकरी ही नसीब होती है, वो भी अगर उसका “भाग्य” साथ दे।
ग्रुप-सी और डी: सीमित सपनों की जेल
आज के युवाओं के लिए नौकरी का अर्थ मात्र ग्रुप-सी और ग्रुप-डी की सीमाएं बनकर रह गया है।
IAS, न्यायिक सेवा, विधि अधिकारी या राज्य सेवा जैसे पद अब केवल ‘सत्ताधारी संतानों’ की झोली में गिरते प्रतीत होते हैं।
यह न केवल सामाजिक अन्याय है, बल्कि एक पूरी पीढ़ी के आत्मविश्वास पर चोट है।
जो युवा परिश्रम और प्रतिभा से भविष्य गढ़ना चाहता है, उसे यह सुनने को मिलता है—“तुम्हारी औकात बस क्लर्क की है!”
प्रचार का युग, सच की चुप्पी
जब कोई समाचार सरकार के पक्ष में होता है, तो वह टीवी चैनलों की बहसों का केंद्र बनता है, फ्रंट पेज की सुर्खियां बनता है।
लेकिन जैसे ही कोई सच सत्ताधारियों के विरुद्ध होता है—जैसे यह सिफारिशी नियुक्तियों की रिपोर्ट—पूरा सिस्टम चुप्पी ओढ़ लेता है।
सरकारें ‘सुशासन’ का दावा करती हैं, लेकिन जब पारदर्शिता की कसौटी पर जांच होती है, तो वे गायब हो जाती हैं।
विश्वास की क्षति, लोकतंत्र का क्षरण
जब न्यायपालिका जैसी संस्था पर भी पारदर्शिता का संकट हो, तो यह केवल एक नियुक्ति नहीं, बल्कि संस्थागत पतन का संकेत है।
जो छात्र दिन-रात जागकर पढ़ाई करता है, वह जब यह सुनता है कि बिना परीक्षा किसी को पद मिल गया—तो उसकी उम्मीद, आत्मबल और सिस्टम पर भरोसा तीनों बिखर जाते हैं।
क्या जवाबदेही तय होगी?
- क्या इन नियुक्तियों की स्वतंत्र जांच होगी?
- क्या 74 अन्य अधिवक्ताओं की पृष्ठभूमि की भी समीक्षा होगी?
- क्या भविष्य में सभी नियुक्तियों को पारदर्शी और प्रतिस्पर्धी प्रक्रिया के दायरे में लाने की नीति बनेगी?
या फिर यह खबर भी कुछ दिनों में किसी पुराने अख़बार के कोने में दफन हो जाएगी?
निष्कर्ष नहीं, संघर्ष का आरंभ
यह लेख किसी निष्कर्ष के रूप में नहीं लिखा गया, बल्कि एक पुकार है—हर उस युवा के लिए जो अब भी ईमानदारी से मेहनत कर रहा है, जो अब भी सिस्टम से आशा लगाए बैठा है।
अब समय है, केवल शिकायत नहीं, सवाल पूछने का—
???? क्या हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था अब केवल पहचान और सिफारिश पर आधारित है?
???? क्या परिश्रमी युवाओं के लिए कोई स्थान नहीं बचा?
???? क्या हम यही अन्याय अगली पीढ़ी को विरासत में देंगे?
यदि आज हम चुप रहे, तो कल की पीढ़ी भी यही कहेगी—
“हमारी कोई पहचान नहीं थी, न कोई सिफारिश… बस उम्मीद थी—वो भी छीन ली गई।”