दीपशिखा श्रीवास्तव’दीप’

किसी भी भाषा की समृद्धि उसके साहित्य से होती है। सार्थक साहित्य वही है जो समकालीन समाज के यथार्थ से प्रेरित हो।
हिंदी साहित्य में उपन्यास सम्राट की उपाधि से अलंकृत मुंशी प्रेमचंद जी ने अपने उपन्यास व कहानियों में समाज के अंतिम पायदान पर खड़े शोषित व्यक्ति को पात्र के रूप में चुना तथा समाज में फैली अनेक कुरीतियों तथा सामाजिक तथा आर्थिक आधार पर व्याप्त भेदभाव पर करारा प्रहार करते हुए अपनी सशक्त लेखनी के माध्यम से समाज को सोचने पर विवश कर दिया!
मुंशी प्रेमचंद कलम के जादूगर माने जाते हैं जिनका जन्म वाराणसी से लगभग चार मील दूर लमही नाम के गांव में 31 जुलाई, 1880 को कायस्थ कुल में हुआ, प्रेमचंद के पिताजी मुंशी अजायब लाल और माता आनंदी देवी थीं।
जब मुंशी प्रेमचंद पंद्रह वर्ष के थे तभी उनका विवाह करवा दिया गया परंतु सन् 1905 के अंतिम दिनों में आपने शिवरानी देवी से शादी कर ली थी, शिवरानी देवी बाल-विधवा थीं।
मुंशी प्रेमचंद जी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य, पर्सियन और इतिहास विषयों से स्नातक की उपाधि द्वितीय श्रेणी में प्राप्त की थी।
मुंशी प्रेमचंद जी ने जिस कालखंड में अपनी लेखनी से हिंदी साहित्य को समृद्ध किया वह कालखंड भारत के इतिहास में बहुत महत्त्वपूर्ण है। इस युग में भारत का स्वतंत्रता संग्राम नई दिशाओं से गुजरा। मुंशी प्रेमचंद एक अद्वितीय लेखक, देशभक्त व्यक्ति, कुशल वक्ता, सफल संपादक और संवेदनशील कहानीकार थे। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जब हिंदी में काम करने की तकनीकी सुविधाएं नहीं थीं फिर भी इतना काम करने वाला लेखक उनके सिवा कोई दूसरा नहीं हुआ।
मुंशी प्रेमचंद का समय 1880 से 1936 तक है। यह वह काल था जब भारत में सामाजिक सांस्कृतिक और न्यायिक विसंगतियां अपने चरम पर थीं और उस समय तक हिंदी साहित्य में विचार और प्रगतिशीलता की कोई ठोस विरासत भी उपलब्ध नहीं थी।
ऐसे समय में उन्होंने गोदान जैसे कालजयी उपन्यास की रचना की जो कि आज भी पाठकों को तत्कालीन सामाज का ऐतिहासिक दस्तावेज प्रतीत होता है।
प्रेमचंद उनका साहित्यिक नाम था और बहुत वर्षों बाद उन्होंने यह नाम अपनाया था। उनका वास्तविक नाम ‘धनपत राय श्रीवास्तव’ था। जब उन्होंने सरकारी सेवा करते हुए कहानी लिखना आरंभ किया, तब उन्होंने नवाब राय नाम अपनाया। बहुत से मित्र उन्हें जीवनपर्यंत नवाब के नाम से ही संबोधित करते रहे। जब सरकार ने उनका पहला कहानी-संग्रह, ‘सोजे वतन’ जब्त किया, तब उन्हें नवाब राय नाम छोड़ना पड़ा। बाद का उनका अधिकतर साहित्य प्रेमचंद के नाम से प्रकाशित ही हुआ।
प्रेमचंद की रचना-दृष्टि विभिन्न साहित्य रूपों में, अभिव्यक्त हुई। वह बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। प्रेमचंद की रचनाओं में तत्कालीन इतिहास बोलता है। उन्होंने अपनी रचनाओं में जन साधारण की भावनाओं, परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण किया। उनकी कृतियां भारत के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृतियां हैं। अपनी कहानियों से प्रेमचंद मानव-स्वभाव की आधारभूत महत्ता पर बल देते हैं।
प्रेमचंद की कृतियां भारत के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृतियां हैं। उन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, संपादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की, किंतु प्रमुख रूप से वह कथाकार हैं। उन्हें अपने जीवन काल में ही उपन्यास सम्राट की पदवी मिल गई थी। उन्होंने कुल पंद्रह उपन्यास, तीन सौ से कुछ अधिक कहानियां, तीन नाटक, दस अनुवाद, सात बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, संपादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की।
प्रेमचंद ने अपने जीवन में कई अद्भुत कृतियां लिखी हैं। तब से लेकर आज तक हिंदी साहित्य में ना ही उनके जैसा कोई हुआ है और ना ही कोई और होगा।
अपने जीवन के अंतिम दिनों के एक वर्ष को छोड़कर उनका पूरा समय वाराणसी और लखनऊ में गुजरा, जहां उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया और अपना साहित्य-सृजन करते रहे। उनकी मृत्यु 8 अक्टूबर, 1936 को हुई
बड़े आश्चर्य की बात है साहित्य के इतने बड़े साधक जिनकी स्मृति में अनेक पुरस्कार दिए जाते हैं उनको आज तक कोई भी पुरस्कार नहीं दिया गया है शायद यह इस बात का प्रतीक है कि सूरज को दिया दिखाने से सूरज का प्रकाश नहीं बढ़ता!
हालांकि मुंशी प्रेमचंद की स्मृति में भारतीय डाक विभाग की ओर से 31 जुलाई, 1980 को उनकी जन्मशती के अवसर पर 30 पैसे मूल्य का एक डाक टिकट जारी किया। गोरखपुर के जिस स्कूल में वे शिक्षक थे, वहां प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गई है। इसके बरामदे में एक भित्तिलेख है। यहां उनसे संबंधित वस्तुओं का एक संग्रहालय भी है। जहां उनकी एक प्रतिमा भी है।
मुंशी प्रेमचंद केवल अतीत नहीं हैं, वे वर्तमान और भविष्य की भी ज़रूरत हैं। उनकी जयंती पर हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि साहित्य को केवल पाठ्यक्रम तक सीमित न रहने दें, बल्कि इसे विचार, संवाद और बदलाव का माध्यम बनाएं। प्रेमचंद की कलम आज भी हमें सोचने को मजबूर करती है – क्या हम सच में बदले हैं?
प्रेमचंद केवल एक लेखक नहीं थे, बल्कि वे उस दौर की आवाज़ थे, जब समाज रूढ़ियों, अंधविश्वास और वर्गभेद की जकड़ में था। उन्होंने कलम को हथियार बनाया और शब्दों के माध्यम से क्रांति की, हिंदी साहित्य के इस कलमवीर साहित्य सम्राट को कोटिशः नमन!
आज 31 जुलाई को हिंदी साहित्य के शिखर पुरुष, यथार्थवादी लेखन के अग्रदूत और सामाजिक चेतना के प्रवर्तक मुंशी प्रेमचंद की जयंती के अवसर पर हम उन्हें याद करें तथा आने वाली पीढ़ी को ऐसे साहित्य में अभिरुचि हेतु प्रेरित करें यही उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी!