ऋषिप्रकाश कौशिक

गुरुग्राम, 02 अगस्त 2025 – हाल ही में बीजेपी प्रदेश संगठन द्वारा जारी की गई जिला प्रभारियों की सूची ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है। इस सूची में अधिकांश जिलों के प्रभारी बीजेपी से निर्वाचित विधायकों को बनाया गया है। संगठन की दृष्टि से यह कदम चुनावी रणनीति के लिहाज से फायदेमंद माना जा सकता है—एक चुनाव जीता हुआ व्यक्ति चुनावी गणित और प्रचार-प्रसार में अनुभव रखता है और संगठन के लक्ष्य को आगे बढ़ा सकता है।

लेकिन सवाल यह है कि क्या यह कदम जनसेवा के मूल उद्देश्य से भटकाव नहीं है? बीजेपी का संगठन अक्सर कार्यकर्ताओं को केवल चुनावी प्रक्रिया में व्यस्त रखता है, जबकि उन वायदों की ज़िम्मेदारी जो चुनाव के समय जनता से किए गए थे, कहीं पीछे छूट जाती है। न तो निर्वाचित विधायक को इसकी चिंता होती है और न ही कार्यकर्ता को दोबारा जनता के बीच जाकर जवाब देने की फुर्सत मिलती है।

इस नियुक्ति प्रक्रिया में सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि एक विधायक को उसकी विधानसभा से बाहर किसी अन्य जिले का प्रभारी बनाया गया है। उदाहरण के तौर पर, गुरुग्राम के विधायक मुकेश शर्मा को गन्नौर का प्रभारी बना दिया गया है। सवाल यह है कि जब वह अपने ही क्षेत्र गुरुग्राम की समस्याओं को हल करने में अब तक विफल रहे हैं, तो क्या गन्नौर में वह कोई चमत्कार कर पाएंगे? और क्या गुरुग्राम की जनता के साथ यह सीधा अन्याय नहीं होगा?

इसके साथ ही एक और बड़ा मुद्दा है संसाधनों का दुरुपयोग। विधायक को सरकारी गाड़ी, सुरक्षा और अन्य सुविधाएं जनता के पैसे से मिलती हैं। यदि वह इन संसाधनों का उपयोग अपने निर्वाचन क्षेत्र की बजाय किसी अन्य जिले में पार्टी के फायदे के लिए कर रहे हैं, तो यह जनता के टैक्स के पैसों का गलत उपयोग नहीं तो और क्या है?

यह स्पष्ट है कि जब सरकार भी बीजेपी की हो और संगठन भी उसी के इशारों पर चले, तो सत्ता और संसाधनों का लाभ संगठन के उद्देश्य के लिए लेना “मौके का फायदा” कहलाता है। लेकिन यह फायदा जनता के हक़ और भरोसे की कीमत पर लिया जा रहा है, जिसे किसी भी लोकतंत्र में उचित नहीं कहा जा सकता।

सवाल अब जनता को करना होगा — क्या हम जनप्रतिनिधि को अपना सेवक मानते हैं या पार्टी का प्रचारक?

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