भारत के इतिहास में ऐसे कई व्यक्तित्व हुए हैं जिन्होंने अपने ज्ञान, तपस्या और कर्मनिष्ठा से राष्ट्र की धारा को नई दिशा दी। उन्हीं में एक नाम है—डॉ. शंकर दयाल शर्मा, जो भारत के नौवें राष्ट्रपति रहे और जिन्होंने राजनीति, कानून तथा साहित्य—तीनों ही क्षेत्रों में अमिट छाप छोड़ी। उनकी जयंती हमें न केवल उनके योगदान की याद दिलाती है, बल्कि यह भी सिखाती है कि राजनीति में आदर्श और मूल्यों का कितना महत्व है।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
शंकर दयाल शर्मा का जन्म 19 अगस्त 1918 को भोपाल (मध्य प्रदेश) में हुआ। प्रारंभ से ही वे मेधावी छात्र रहे। उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय और लंदन के लिंकन इन से उच्च शिक्षा प्राप्त की। वहीं से वे कानून और संवैधानिक व्यवस्थाओं की गहरी समझ लेकर लौटे। उनका बौद्धिक स्तर इतना ऊँचा था कि उन्हें कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में “डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी” की उपाधि भी मिली।
स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ाव
युवा अवस्था में ही वे स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गए। उन्होंने विदेशी शासन की नीतियों के खिलाफ आवाज उठाई और कई बार जेल भी गए। यह उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता थी कि वे राजनीति में प्रवेश करने से पहले ही त्याग और संघर्ष की कसौटी पर खरे उतर चुके थे।
राजनीति और संवैधानिक जिम्मेदारियाँ
स्वतंत्रता के बाद शंकर दयाल शर्मा ने कांग्रेस पार्टी के साथ सक्रिय राजनीति की शुरुआत की। वे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। इसके बाद उन्हें राजस्थान, आंध्र प्रदेश, पंजाब और महाराष्ट्र का राज्यपाल नियुक्त किया गया। संवैधानिक पदों पर रहते हुए उनकी निष्पक्षता, संतुलन और विद्वत्ता की सर्वत्र सराहना हुई।
बाद में वे भारत के उपराष्ट्रपति (1987-1992) और फिर राष्ट्रपति (1992-1997) बने। राष्ट्रपति के रूप में उनका कार्यकाल भारतीय लोकतंत्र की मर्यादा को बनाए रखने वाला रहा। उन्होंने हमेशा संविधान की रक्षा और लोकशाही की मजबूती को प्राथमिकता दी।
विद्वत्ता और साहित्य प्रेम
डॉ. शर्मा न केवल राजनेता थे, बल्कि साहित्यकार और संस्कृतिप्रेमी भी थे। उन्हें संस्कृत और हिंदी सहित कई भाषाओं का गहरा ज्ञान था। उनके भाषणों में भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिकता की गूँज सुनाई देती थी। वे मानते थे कि राजनीति का अंतिम लक्ष्य जनता की सेवा और नैतिक मूल्यों का पालन होना चाहिए।
विरासत और प्रेरणा
शंकर दयाल शर्मा का जीवन हमें यह प्रेरणा देता है कि राजनीति केवल सत्ता प्राप्त करने का माध्यम नहीं है, बल्कि यह समाज और राष्ट्र के प्रति दायित्व निभाने का अवसर है। उनके आदर्श आज भी राजनीतिक और सामाजिक जीवन के लिए प्रासंगिक हैं।