✍ विजय गर्ग ………. सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब

शिक्षा केवल किताबी ज्ञान तक सीमित नहीं, बल्कि एक उज्ज्वल समाज की नींव है। यह न केवल व्यक्ति के भविष्य, बल्कि राष्ट्र के विकास की दिशा तय करती है। लेकिन आज शिक्षा बाजारीकरण की चपेट में आ चुकी है। ज्ञान का उद्देश्य अब आत्मविकास या समाज-कल्याण नहीं, बल्कि सिर्फ धन अर्जन बनकर रह गया है।
बाजारीकरण की चपेट में शिक्षा
आज शिक्षा कोचिंग संस्थानों और निजी विश्वविद्यालयों के व्यवसायिक मॉडल में सिमटकर रह गई है। माता-पिता अपने बच्चों को उनकी रुचि जाने बिना ही डॉक्टर, इंजीनियर, या आईएएस बनाने की दौड़ में धकेल रहे हैं। बड़े-बड़े कोचिंग सेंटर शिक्षा को उद्योग बना चुके हैं, जहां प्रवेश का अर्थ सफलता और बाहर रहने का मतलब असफलता मान लिया जाता है। इस होड़ में गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों के बच्चे पीछे छूट जाते हैं क्योंकि महंगी शिक्षा उनकी पहुंच से बाहर होती है।
क्या समान शिक्षा संभव है?
सरकारी स्कूलों में शिक्षा सबके लिए उपलब्ध तो है, लेकिन सवाल यह है कि क्या वे निजी स्कूलों के विद्यार्थियों से प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं? शिक्षा अब एक प्रतिष्ठा और कुलीनता का प्रतीक बन गई है। उच्च वर्ग के लिए यह एक मान-सम्मान का विषय है, जहां निम्न वर्ग का प्रवेश असंभव हो गया है। यह आर्थिक और सामाजिक असमानता को और गहरा कर रहा है।
नई शिक्षा नीति: उम्मीद या भ्रम?
नई शिक्षा नीति में बदलाव की बातें तो की गई हैं, लेकिन क्या इससे शिक्षा की गुणवत्ता और समावेशिता बढ़ेगी? विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में प्रवेश देने की योजना क्या शिक्षा को सुधारने का माध्यम बनेगी या सिर्फ महंगी शिक्षा व्यवस्था को बढ़ावा देगी? मातृभाषा में शिक्षा का प्रावधान एक सकारात्मक पहल है, लेकिन शिक्षा का व्यापक उद्देश्य तभी पूरा होगा जब यह सस्ती, समान और सर्वसुलभ होगी।
क्या चाहिए एक सशक्त शिक्षा व्यवस्था के लिए?
- शिक्षा को व्यवसाय नहीं, सेवा बनाया जाए – शिक्षा केवल अमीरों तक सीमित न रहे, बल्कि हर वर्ग को समान अवसर मिले।
- प्रतिभा को पहचाना जाए, न कि कोचिंग केंद्रों की रेस में झोंका जाए – हर बच्चे की क्षमता को समझकर उसे उसके अनुसार अवसर दिया जाए।
- शिक्षा और रोजगार के बीच संतुलन हो – नई शिक्षा नीति में यह सुनिश्चित हो कि रोजगार के अवसर बढ़ें और तकनीकी शिक्षा का सही उपयोग हो।
- शिक्षकों को राष्ट्रनिर्माता की भूमिका दी जाए – जब शिक्षक आर्थिक असुरक्षा से मुक्त होंगे, तभी वे समाज को सशक्त शिक्षा दे पाएंगे।
शिक्षा: व्यवसाय नहीं, राष्ट्र की रीढ़
शिक्षा मानवाधिकार है, न कि एक व्यापार। इसे सरकारों की नीतियों का शिकार नहीं बनाया जाना चाहिए, बल्कि इसे निष्पक्ष, स्वतंत्र और सबके लिए सुलभ बनाना होगा। जैसे सैनिक सीमाओं की रक्षा करते हैं, वैसे ही शिक्षकों को समाज की संरचना का प्रहरी बनाना होगा। हमें ऐसी शिक्षा व्यवस्था की जरूरत है जो केवल डिग्री नहीं, बल्कि चरित्र, सच्चाई और समानता की सीख दे।
???? शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी पाना नहीं, बल्कि एक बेहतर समाज और सशक्त राष्ट्र का निर्माण होना चाहिए।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब