सुरेश गोयल ‘धूप वाला’, हिसार (हरियाणा)

हर दिन देश के किसी न किसी कोने से ऐसी खबरें सामने आती हैं, जो आधुनिकता की आड़ में बढ़ रही सामाजिक बुराइयों की ओर संकेत करती हैं। आज के समाचार पत्रों में प्रकाशित ताज़ा घटना—हरियाणा के तावडू क्षेत्र में लिव-इन रिलेशन में रह रही युवती के अपहरण का प्रयास और उसके प्रेमी की माँ पर गाड़ी चढ़ाने की कोशिश—ने एक बार फिर इस विषय को बहस के केंद्र में ला दिया है।
लिव-इन जैसे रिश्ते भारतीय समाज में कुछ वर्ष पूर्व तक कल्पनातीत थे। जहां विवाह को सात जन्मों का पवित्र बंधन माना जाता रहा है, वहीं अब बिना सामाजिक या धार्मिक स्वीकृति के ऐसे संबंधों की बढ़ती प्रवृत्ति एक गंभीर चिंता का विषय बन चुकी है।
लिव-इन के अधिकतर मामलों में जो घटनाएं घट रही हैं, वे अत्यंत दुःखद और समाज को झकझोर देने वाली हैं—चाहे वह प्रेमी के साथ मिलकर पति की हत्या का मामला हो या फिर संबंध टूटने के बाद बलात्कार जैसे आरोपों का लगाया जाना। कर्नाटक में डीजीपी स्तर के अधिकारी की पत्नी द्वारा की गई निर्मम हत्या भी इसी सामाजिक गिरावट का एक ज्वलंत उदाहरण है।
हरियाणा महिला आयोग की चेयरपर्सन रेणु भाटिया ने भी इस विषय पर खुलकर अपनी चिंता व्यक्त की है। उन्होंने लिव-इन कानून को मूलतः त्रुटिपूर्ण बताते हुए कहा कि करीब 60% मामलों में महिलाएं और पुरुष आपसी सहमति से साथ रहते हैं, लेकिन संबंध बिगड़ने पर गंभीर आरोप लगाए जाते हैं। उन्होंने स्पष्ट कहा कि वह इस कानून के विरोध में आवाज़ उठाने के लिए तैयार हैं।
भारत का सर्वोच्च न्यायालय भले ही लिव-इन को अपराध न मानता हो, लेकिन उसने यह भी स्पष्ट किया है कि इसे न तो वैधानिक माना जा सकता है, न नैतिक। समाज का चरित्र केवल कानूनों से नहीं बनता, वह संस्कारों, मूल्यों और नैतिकता पर आधारित होता है।
आज हालात ये हैं कि लिव-इन में रह रही अनेक महिलाएं गर्भवती होने के बाद छोड़ी जा रही हैं। ऐसे में न केवल वे खुद दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं, बल्कि उनके परिवार भी सामाजिक बदनामी के भय से उन्हें अपनाने से कतराते हैं। यह स्थिति हमें बताती है कि यह सिर्फ व्यक्तिगत चयन का मामला नहीं, बल्कि सामाजिक संतुलन के लिए एक गंभीर चुनौती है।
यह समय आंखें मूंदे रहने का नहीं है। तथाकथित आधुनिक माता-पिता को चाहिए कि वे अपने बच्चों के जीवन में सच्चे मार्गदर्शक की भूमिका निभाएं। सामाजिक संस्थाओं और नीति-निर्माताओं को भी इस दिशा में ठोस पहल करनी होगी।
अगर समय रहते हमने इस सामाजिक प्रवृत्ति की दिशा न मोड़ी, तो यह हमें उस अंधकार की ओर ले जाएगी, जहां से लौटना शायद संभव न हो।
अभी तक लेखक महोदय पुरातन मान्यताओं को ओढ़े चले जा रहे हैं। समय के साथ नियम, विधि और प्रथाएं बदल गई, किंतु यह अभी बालकाल से बाहर नहीं निकल पाए।