सुरेश गोयल ‘धूप वाला’, हिसार

भारतीय समाज की पहचान सदियों से उसकी पारिवारिक एकता, सांस्कृतिक मूल्यों और आत्मीय संबंधों से रही है। कभी हमारे यहाँ संयुक्त परिवार केवल रहने की व्यवस्था भर नहीं थे, बल्कि एक ऐसी जीवंत संस्था हुआ करते थे जहाँ प्रेम, सहयोग और मार्गदर्शन की परंपरा पीढ़ियों को जोड़ती थी। दादा-दादी, माता-पिता, भाई-बहन — सभी एक छत के नीचे न केवल साथ रहते थे, बल्कि जीवन के हर छोटे-बड़े फैसले साझा होते थे। बुजुर्गों का अनुभव और सलाह परिवार की धुरी मानी जाती थी।
परंतु समय के साथ जैसे-जैसे समाज में औद्योगिकीकरण और शहरीकरण का विस्तार हुआ, शिक्षा और रोजगार की अनिवार्यताओं ने लोगों को गांवों और छोटे कस्बों से महानगरों की ओर धकेला। इस पलायन ने सबसे पहले संयुक्त परिवार की नींव को प्रभावित किया। अब परिवार छोटे होते गए, और अंततः एकल परिवारों का चलन सामान्य हो गया।
इन परिवर्तनों के साथ-साथ पश्चिमी जीवनशैली का अंधानुकरण भी बढ़ा। रिश्तों की जगह सुविधाओं ने ले ली और निर्णयों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता को प्राथमिकता मिलने लगी। बुजुर्गों की भूमिका सीमित हो गई — कभी कोने के कमरे में, कभी वृद्धाश्रम में, और कई बार भावनात्मक उपेक्षा के बोझ तले।
आज की आत्मकेंद्रित जीवनशैली में हर व्यक्ति ‘मैं’ और ‘मेरा’ की परिधि में सिमटता जा रहा है। संवाद कम हो गया है, संवेदना क्षीण होती जा रही है। एक ही घर में रहकर भी लोग एक-दूसरे से कटे-कटे से रहते हैं। परिवार में कोई “मुखिया” नहीं रह गया — सब अपने हिसाब से जीते हैं, सोचते हैं, और फैसले करते हैं। ऐसे में संबंधों की डोर ढीली नहीं, बल्कि टूटने के कगार पर है।
यह विघटन केवल घर की चारदीवारी तक सीमित नहीं रहा। सामाजिक जीवन में भी सहयोग, सहानुभूति और सामूहिकता जैसी मूल भावनाएँ पीछे छूटती जा रही हैं। आज विवाह, जन्मोत्सव या अन्य पारिवारिक कार्यक्रम महज औपचारिकता बनते जा रहे हैं — दिखावे की चकाचौंध के बीच अपनापन कहीं गुम हो गया है।
प्रश्न यह नहीं कि यह बदलाव क्यों आया, बल्कि यह है कि अब हम इस गिरावट को कैसे रोकें? क्या हम अपने बच्चों को केवल आधुनिकता का पाठ पढ़ाकर उन्हें अपनी सांस्कृतिक जड़ों से काटते जा रहे हैं? क्या तकनीक और तरक्की की इस दौड़ में हम यह भूल चुके हैं कि सबसे बड़ी उपलब्धि मजबूत रिश्ते और भावनात्मक सुरक्षा है?
यदि समय रहते हमने चेतना नहीं दिखाई, तो आने वाला कल ऐसा हो सकता है जब परिवार केवल सोशल मीडिया पर फोटो खिंचवाने की औपचारिक इकाई बनकर रह जाएगा, और व्यक्ति अकेलेपन की उस खाई में चला जाएगा, जहाँ से लौटना कठिन होगा।
समाधान कहीं बाहर नहीं, हमारे भीतर ही है। ज़रूरत है कि हम फिर से अपने मूल्यों की ओर लौटें — बुजुर्गों को सम्मान दें, बच्चों को संवेदनशीलता और परंपराओं की शिक्षा दें, और संबंधों की गरिमा को समझें। परिवार को केवल एक इकाई नहीं, एक अनुभव बनाएं — जहाँ हर पीढ़ी को स्थान, सम्मान और संवाद मिले।
इसी में हमारी सांस्कृतिक अस्मिता और सभ्यता की पहचान सुरक्षित है।