वैश्विक बदलते परिपेक्ष में ज़बरन स्वार्थी पलायन शरणार्थी बनाम भय उत्पीड़न हिंसा व पर्यावरणीय जलवायु परिवर्तन पीड़ित शरणार्थी
दुनियाँ की बदलती परिस्थितियों से क्या अंतरराष्ट्रीय शरणार्थी सम्मेलन 1951व इसके प्रोटोकॉल 1967 के संशोधन की ज़रूरत नहीं?भारत के ऑपरेशन पुशबैक व अमेरिका के टारगेट@3000 इसके सटीक उदाहरण
– एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं

वैश्विक पृष्ठभूमि
हर वर्ष 20 जून को विश्व शरणार्थी दिवस मनाया जाता है, जिसका उद्देश्य शरणार्थियों की पीड़ा, संघर्ष और अधिकारों की ओर वैश्विक ध्यान आकर्षित करना होता है। इस वर्ष 2025 की थीम है “मान्यता के माध्यम से एकजुटता”, जो यह दर्शाती है कि शरणार्थियों को केवल सहानुभूति ही नहीं, बल्कि पूर्ण अधिकार और सम्मान भी मिलना चाहिए।
विश्व भर में लाखों लोग संघर्ष, युद्ध, उत्पीड़न, जलवायु परिवर्तन या राजनीतिक अस्थिरता के कारण शरणार्थी जीवन जीने को मजबूर हैं। ये लोग न केवल अपना घर-बार छोड़ने को विवश होते हैं, बल्कि अपने मूल अधिकारों, पहचान और भविष्य को भी खो बैठते हैं।
1951 का शरणार्थी सम्मेलन और 1967 का प्रोटोकॉल: क्या अब संशोधन आवश्यक?

1951 का अंतरराष्ट्रीय शरणार्थी सम्मेलन और 1967 का प्रोटोकॉल अब भी शरणार्थी अधिकारों की वैश्विक रूपरेखा हैं। इन दस्तावेजों में “गैर-रिफाउलमेंट” (non-refoulement) सिद्धांत निहित है, जो यह सुनिश्चित करता है कि किसी शरणार्थी को उस देश में नहीं लौटाया जाए जहाँ उसके जीवन को खतरा हो।
परंतु आज के बदले हुए भू-राजनीतिक परिदृश्य, स्वार्थी घुसपैठ, और जलवायु-जनित विस्थापन को देखते हुए इन प्रावधानों की पुनर्समीक्षा और संशोधन की आवश्यकता प्रबल हो गई है। क्या वर्तमान परिस्थितियाँ 1951 और 1967 की व्यवस्थाओं से अधिक जटिल और बहुआयामी नहीं हो गई हैं?
भारत का संदर्भ – ऑपरेशन पुशबैक
भारत ने 1951 सम्मेलन या 1967 प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं, परंतु मानवीय आधार पर उसने बार-बार शरणार्थियों को शरण दी है – तिब्बती, श्रीलंकाई तमिल, बांग्लादेशी, रोहिंग्या जैसे उदाहरण हमारे सामने हैं।
हाल ही में “ऑपरेशन पुशबैक” के तहत बांग्लादेशी घुसपैठियों को वापिस भेजने की प्रक्रिया चल रही है। लेकिन भारत में अभी तक शरणार्थियों के लिए कोई स्पष्ट कानून नहीं है। हालांकि संविधान का अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) सभी व्यक्तियों पर लागू होता है, शरणार्थियों को सुरक्षित रखने के लिए एक सुस्पष्ट और पारदर्शी शरणार्थी नीति की आवश्यकता है।
अमेरिका का संदर्भ – टारगेट @3000 और विस्थापन संकट

अमेरिका, जिसने 1951 सम्मेलन पर हस्ताक्षर नहीं किए लेकिन 1967 के प्रोटोकॉल को अपनाया है, वहाँ अवैध अप्रवासियों को लेकर सख्त रवैया अपनाया जा रहा है। “Target @3000” नीति के तहत हजारों लोगों को डिपोर्ट किया जा रहा है, जिससे लॉस एंजिल्स, न्यूयॉर्क, सैन फ्रांसिस्को जैसे शहरों में भारी विरोध-प्रदर्शन भड़क उठे हैं।
अप्रवासियों के अधिकारों और अमेरिका के भीतर कुछ शहरों की सहानुभूति पूर्ण नीतियों के बीच टकराव, वहां की आंतरिक राजनीति को भी प्रभावित कर रहा है। सेना की तैनाती, नागरिक अशांति, और प्रेस पर हमले इस मुद्दे को और गंभीर बना रहे हैं।
शरणार्थी बनाम घुसपैठ: बदलता दृष्टिकोण
आज की दुनिया में एक नई बहस जन्म ले रही है – क्या सभी विस्थापित व्यक्ति शरणार्थी हैं? कुछ लोग जानबूझकर आर्थिक, राजनीतिक लाभ या अपराध छुपाने के लिए पलायन करते हैं, जिससे वास्तविक पीड़ित शरणार्थियों को भी शक की निगाह से देखा जाने लगा है।
दूसरी ओर, पर्यावरणीय और जलवायु कारणों से विस्थापित लोग किसी परंपरागत युद्ध या उत्पीड़न के कारण नहीं भाग रहे, फिर भी उन्हें किसी पहचान या अधिकार का लाभ नहीं मिलता। यह संकट भविष्य में और बढ़ेगा।
निष्कर्ष और सिफारिशें
- 1951 सम्मेलन और 1967 प्रोटोकॉल में संशोधन आवश्यक हैं ताकि नई चुनौतियों (जैसे जलवायु विस्थापन, आतंकी खतरे, अवैध घुसपैठ) को समाहित किया जा सके।
- भारत को एक स्पष्ट शरणार्थी नीति बनानी चाहिए, जो मानवीय आधार, सुरक्षा और कानून का संतुलन बनाए।
- अंतरराष्ट्रीय सहयोग और समन्वित नीति के बिना, यह मुद्दा और जटिल होता जाएगा।
- “मान्यता के माध्यम से एकजुटता” का सार यह है कि सभी शरणार्थियों को केवल सहानुभूति नहीं, सम्मान, सुरक्षा और अवसर भी मिलने चाहिए।
समर्पण – संघर्षरत मानवता को
विश्व शरणार्थी दिवस उन करोड़ों लोगों को समर्पित है जो अपना सब कुछ खोकर भी साहस, संकल्प और आत्मबल से जीवन की नई शुरुआत करते हैं। हमें उनके लिए खड़े होना होगा, उन्हें “घुसपैठिया” नहीं बल्कि “पीड़ित मानवता” समझना होगा।
-संकलनकर्ता लेखक – क़र विशेषज्ञ स्तंभकार साहित्यकार अंतरराष्ट्रीय लेखक चिंतक कवि संगीत माध्यम सीए (एटीसी) एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र