पूजा-पद्धति नहीं, सदाचार, करूणा और सत्य ही धर्म का मर्म है : सुरेश गोयल धूप वाला

सुरेश गोयल धूप वाला

हिसार, 20 जून – भारतीय सभ्यता में ‘धर्म’ शब्द का अर्थ केवल कर्मकांड या पूजा-पद्धतियों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह जीवन के उच्चतम मूल्यों और नैतिकताओं का प्रतीक रहा है। पूर्व भाजपा जिला महामंत्री सुरेश गोयल धूप वाला ने धर्म की वर्तमान व्याख्या पर गंभीर प्रश्न उठाते हुए इसे आत्मनिरीक्षण का विषय बताया है।

धर्म : जीवन जीने की विधा, न कि केवल अनुष्ठान

धूप वाला ने अपने विचारों में कहा कि आज धर्म को केवल मंदिर जाने, तिलक लगाने, व्रत रखने और धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित कर दिया गया है। जबकि प्राचीन भारत में धर्म का अर्थ था — सत्य, करुणा, सेवा, संयम और सदाचार से युक्त आचरण।

“यदि कोई व्यक्ति दिन में किसी का शोषण करे और शाम को मंदिर जाकर पूजा कर ले, तो वह अधर्म ही करेगा,” उन्होंने स्पष्ट कहा।

श्रीकृष्ण की गीता का संदर्भ: “स्वधर्मे निधनं श्रेयः”

धूप वाला ने भगवद्गीता का उद्धरण देते हुए बताया कि धर्म का पालन करना आत्मकल्याण का मार्ग है — लेकिन यह पालन केवल बाहरी क्रियाओं से नहीं, बल्कि मन, वचन और कर्म की शुद्धता से होता है। “धर्म का पहला कर्तव्य है — किसी का अनहित न सोचना, न करना, और लोकमंगल के लिए कार्य करना।”

आस्था बनाम आचरण : आज की विडंबना

उन्होंने कहा कि आज मंदिरों की भीड़ बढ़ रही है, लेकिन समाज में ईमानदारी, नैतिकता और करुणा जैसे मूल्यों का ह्रास हो रहा है। यह स्पष्ट करता है कि धर्म की व्याख्या केवल अनुष्ठानों की बाह्य शोभा बनकर रह गई है।

कर्मकांड बनाम सच्चा धर्म

धूप वाला ने जोर देते हुए कहा कि सच्चा धर्म वह है जिसमें व्यक्ति दुखियों की सेवा, सत्य का आचरण, और मानव मात्र की भलाई के लिए निरंतर प्रयास करता है। उन्होंने यह भी जोड़ा कि “यदि हम अपने कार्यों में ईमानदारी रखें, किसी का हक न मारें और करुणा से युक्त जीवन जिएं, तो वही सच्चा धर्म है।”

निष्कर्ष : धर्म के मूल में लौटने की आवश्यकता

धूप वाला का कहना है कि आज आवश्यकता है धर्म को उसकी मूल भावना — नैतिकता, सदाचार और सेवा — के साथ आत्मसात करने की। केवल तब ही हमारा जीवन, समाज और राष्ट्र सच्चे अर्थों में ‘धर्ममय’ बन पाएंगे।

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