ऋषि प्रकाश कौशिक

“जनप्रतिनिधियों का प्रोटोकॉल मुख्य सचिव से ऊपर होता है” — यह बयान जब हरियाणा के वरिष्ठ मंत्री अनिल विज जैसे अनुभवी नेता की जुबान से निकलता है, तो यह केवल एक नाराज़गी नहीं, बल्कि लोकतंत्र के मूल ढांचे में गड़बड़ी की स्पष्ट सूचना देता है। हरियाणा में बीते कुछ महीनों में जो घटनाक्रम सामने आए हैं, वह केवल विधायकों की व्यक्तिगत शिकायतें नहीं, बल्कि एक पूरे राजनीतिक तंत्र के भीतर घटते ‘सम्मान के संतुलन’ की ओर इशारा करते हैं।
अफसरशाही बनाम जनप्रतिनिधित्व — एक असंतुलित रिश्ता
हरियाणा में 8 विधायकों ने खुलकर अपनी उपेक्षा की शिकायत की है — किसी के साथ हाथापाई होती है, तो किसी को कुर्सी तक नहीं दी जाती; कहीं 20 बार कॉल करने पर भी SP फोन नहीं उठाते, तो कहीं उद्घाटन कार्यक्रमों से जानबूझकर दूर रखा जाता है। ये उदाहरण दर्शाते हैं कि नौकरशाही का एक वर्ग अब विधायक और मंत्री को भी हल्के में लेने लगा है। यह केवल विपक्षी विधायकों की नहीं, सत्ता पक्ष के नेताओं की भी पीड़ा है — जैसे भाजपा विधायक प्रमोद विज को ‘सॉरी और प्लीज़’ कहकर अपनी बात मनवानी पड़ी।
यह अफसरशाही की बढ़ती बेलगामी नहीं तो और क्या है?
विधायक प्रोटोकॉल कमेटी का न होना — संस्थागत कमजोरी
मनोहर लाल सरकार ने वर्ष 2022 में पहली बार विधायक प्रोटोकॉल कमेटी बनाई थी, ताकि विधायकों को उचित सम्मान और संज्ञान मिले। तीन अलग-अलग चरणों में इसका गठन हुआ, लेकिन मार्च 2025 में इसका कार्यकाल समाप्त होने के बाद नायब सैनी सरकार ने इस कमेटी का दोबारा गठन नहीं किया। विधानसभा स्पीकर का तर्क है कि इसे प्रिविलेज कमेटी में मर्ज कर दिया गया है। लेकिन यहीं सवाल खड़ा होता है — क्या दो अलग उद्देश्यों वाली कमेटियों को एक कर देना, संस्थागत सम्मान को कुचलने के बराबर नहीं है?
प्रिविलेज कमेटी का कार्यक्षेत्र मुख्यतः विधानमंडल के भीतर के मामलों से जुड़ा होता है। जबकि प्रोटोकॉल कमेटी प्रशासनिक व्यवहार, सामाजिक प्रतिष्ठा और व्यवहारिक सम्मान के सवालों को उठाने का मंच होती है।
सत्ता पक्ष की चुप्पी और अफसरों की सक्रियता
सबसे गंभीर चिंता इस बात की है कि जब खुद सत्ता पक्ष के विधायक और मंत्री अफसरशाही के आगे बेबस दिख रहे हों, तो आमजन की दुर्दशा का अनुमान सहज लगाया जा सकता है। हिसार के उकलाना से विधायक नरेश सेलवाल हों या साढौरा से विधायक रेणु बाला, सभी का एक ही स्वर है — अफसर सुनते नहीं, काम नहीं करते, और अपमान करते हैं।
जब नूंह से विधायक आफताब अहमद यह कहते हैं कि “सत्ता पक्ष के विधायक की भी नहीं सुनी जा रही, विपक्ष की तो बात ही छोड़िए,” तब यह संकेत है कि प्रदेश में सत्ता से ज्यादा अफसरों की चल रही है।
क्या यह लोकतांत्रिक व्यवस्था की विफलता है?
लोकतंत्र का मूल आधार जनप्रतिनिधित्व है। MLA, MP और अन्य निर्वाचित जनप्रतिनिधि जनता और शासन के बीच की कड़ी होते हैं। अगर उन्हें ही कार्यक्रमों में न बुलाया जाए, उनका फोन तक न उठाया जाए, तो यह केवल ‘प्रोटोकॉल उल्लंघन’ नहीं बल्कि लोकतंत्र के ‘जनसंपर्क तंत्र’ की हत्या है।
विपक्षी विधायक गोकुल सेतिया की सोशल मीडिया पर लाइव धमकी — “छठी का दूध याद दिला देंगे,” एक हताश जनप्रतिनिधि की आवाज़ है, जो संसद या विधानसभा में नहीं, बल्कि वर्चुअल स्पेस में जगह पा रही है। यही लोकतंत्र की विफलता है।
अनिल विज का बयान और कार्रवाई: लेकिन क्या यही काफी है?
कैबिनेट मंत्री अनिल विज ने कई बार स्पष्ट कहा कि उन्होंने अफसरों को निर्देश दिए हैं कि विधायक हो या मंत्री, सभी के फोन उठाए जाएं। उन्होंने सख्त कार्रवाई की भी बात कही, जैसे शिक्षा मंत्री ढांडा की शिकायत पर बिजली निगम के SE को सस्पेंड कर दिया गया।
लेकिन यह ‘सामूहिक समस्या’ को व्यक्तिगत आदेशों से नहीं सुलझाया जा सकता। इसके लिए एक ठोस और पुनर्स्थापित संस्थागत ढांचे की जरूरत है — यानी विधायक प्रोटोकॉल कमेटी का दोबारा गठन और उसे संवैधानिक अधिकार।
प्रशासनिक सेवा की भूमिका और उत्तरदायित्व
भारतीय प्रशासनिक सेवा का मूलभूत आदर्श ‘कर्तव्यनिष्ठा’ है। IAS, IPS या अन्य सेवाएं संविधान की सेवा में नियुक्त होती हैं, न कि किसी विशेष सरकार या अफसरशाही के आत्म-अभिमान के पोषण के लिए। जब अफसर चुने हुए प्रतिनिधियों को नज़रअंदाज़ करते हैं, तब वे जनता के विश्वास का भी अपमान करते हैं।
क्या यह समय नहीं है कि सरकार एक स्पष्ट संदेश दे — कि अफसरशाही, जनतंत्र की सेवा है, उसकी दमनकारी संरचना नहीं?
स्पीकर और सीएम की भूमिका भी सवालों के घेरे में
विधानसभा स्पीकर हरविंद्र कल्याण यदि 15 अन्य कमेटियों का गठन कर सकते हैं, तो प्रोटोकॉल कमेटी को छोड़ने का निर्णय केवल तकनीकी नहीं, राजनीतिक भी प्रतीत होता है। यह सवाल मुख्यमंत्री नायब सैनी के लिए भी गंभीर है — क्या वे अफसरशाही को विधायकों से ऊपर मानते हैं?
इस विषय पर हाईकोर्ट के वकील हेमंत कुमार ने जो ज्ञापन दिया है, वह बताता है कि यह केवल एक राजनीतिक बहस नहीं, संवैधानिक अधिकार और गरिमा की लड़ाई है।
प्रतिनिधियों का अपमान नहीं, सम्मान हो
हरियाणा में जो चल रहा है, वह केवल विधायकों के साथ नहीं हो रहा — यह हर उस आम आदमी के साथ हो रहा है, जिसकी आवाज़ को विधायक प्रतिनिधित्व देता है। जब विधायकों की कुर्सी पीछे कर दी जाती है, उन्हें फोन पर सॉरी बोलनी पड़ती है, और उद्घाटन से बाहर रखा जाता है, तब लोकतंत्र के मंदिर में जनता की आस्था भी दरकती है।
समय आ गया है कि विधायक प्रोटोकॉल कमेटी का तत्काल पुनर्गठन किया जाए और हरियाणा सरकार यह सुनिश्चित करे कि जनता के प्रतिनिधियों को वह सम्मान मिले, जिसके वे संवैधानिक रूप से अधिकारी हैं।
वरना आने वाले चुनावों में जनता न अफसरों को चुनेगी, न उनके पक्ष में मौन रहने वालों को।