भारत में भ्रष्टाचार आतंकवाद हत्या इत्यादि अपराधों में प्रॉसीक्यूशन द्वारा सजा दिलाने का प्रतिशत बहुत कम होना सोचनीय?
भारत में प्रॉसीक्यूशन पक्ष की सफलताओं को प्रभावित करने में राजनीतिक हस्तक्षेप,भ्रष्टाचार, गवाहों का डर इत्यादि कारकों का संज्ञान लेना ज़रूरी
– एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं

हाईकोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: सभी 12 आरोपी बरी
भारत – 21 जुलाई 2025 को बॉम्बे हाईकोर्ट ने 2006 मुंबई लोकल ट्रेन ब्लास्ट केस में ट्रायल कोर्ट द्वारा दोषी ठहराए गए 12 में से 11 आरोपियों को सभी आरोपों से बरी कर दिया। एक आरोपी की मृत्यु अपील लंबित रहने के दौरान हो गई थी। अदालत ने टिप्पणी की कि “अभियोजन पक्ष आरोप सिद्ध करने में पूरी तरह विफल रहा, और यह मानना कठिन है कि इन आरोपियों ने यह अपराध किया है।”
2006 ब्लास्ट केस: घटनाक्रम की संक्षिप्त रूपरेखा
- 11 जुलाई 2006: मुंबई की लोकल ट्रेनों में 7 सिलसिलेवार धमाके
- 187 की मौत, 824 घायल
- 13 आरोपियों की गिरफ्तारी (कुछ पाकिस्तानी नागरिक भी शामिल)
- 30 नवंबर 2006: चार्जशीट दाखिल
- 2015: ट्रायल कोर्ट ने 12 को दोषी ठहराया — 5 को फांसी, 7 को उम्रकैद
- 2024: हाईकोर्ट में सुनवाई शुरू
- 21 जुलाई 2025: हाईकोर्ट द्वारा सभी दोषमुक्त
मकोका कोर्ट का फैसला और उसका निष्प्रभावी होना
11 सितंबर 2015 को स्पेशल मकोका कोर्ट ने 13 में से 5 को फांसी, 7 को उम्रकैद और एक को बरी किया था। 2016 में हाईकोर्ट में अपील दायर हुई और 9 वर्षों की लंबी प्रक्रिया के बाद 2025 में सभी 12 आरोपी निर्दोष करार दिए गए।
क्या अब सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाएगी?
- सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 136 के तहत विशेष अनुमति याचिका दायर की जा सकती है।
- सुप्रीम कोर्ट यदि याचिका स्वीकार करता है, तो हाईकोर्ट के फैसले की समीक्षा होगी।
- इस प्रक्रिया में वर्षों लग सकते हैं।
भारतीय न्याय प्रणाली में अभियोजन पक्ष की चुनौतियाँ
भारतीय न्याय प्रणाली में अपराधियों को सजा दिलाना एक जटिल व दीर्घकालिक प्रक्रिया है। निम्न कारण अक्सर अभियोजन को विफल बना देते हैं:
- साक्ष्य की कमी – पर्याप्त और पुख्ता सबूतों का अभाव
- गवाहों की अनिच्छा और भय
- कानूनी प्रक्रियाओं में अत्यधिक देरी
- राजनीतिक हस्तक्षेप व भ्रष्टाचार
- अपर्याप्त संसाधन और प्रशिक्षण
सरकार द्वारा किए जा रहे सुधारात्मक प्रयास
- कानूनों और प्रक्रियाओं में बदलाव
- अदालतों में संसाधनों का विस्तार
- जनजागरूकता अभियान और कानूनी साक्षरता बढ़ाना
फिर भी, सजा दर बढ़ाना और न्याय सुनिश्चित करना एक लंबी और जटिल चुनौती बनी हुई है।
असल मुद्दा: जब सभी बरी हो गए तो दोषी कौन?
यह सवाल देश की न्याय प्रणाली, प्रॉसीक्यूशन, जांच एजेंसियों और प्रशासनिक तंत्र पर गंभीर सवाल खड़ा करता है —
- क्या असली दोषी अब भी बाहर घूम रहा है?
- क्या निर्दोष लोगों को सालों तक जेल में रखा गया?
- क्या यह जांच और अभियोजन की गंभीर विफलता नहीं है?
लेखक की टिप्पणी: राजनीतिक हस्तक्षेप और व्यवस्था की जड़ में बैठा भ्रष्टाचार
मैं, एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं, गोंदिया महाराष्ट्र से यह अनुभव करता हूं कि भारत में अनेक मामलों में प्रॉसीक्यूशन विफल होता है, क्योंकि
- गवाहों को डराया जाता है
- भ्रष्टाचार उच्चतम स्तर से लेकर नीचे तक फैला है
- जांच एजेंसियों व न्यायपालिका के बीच मिलीभगत से असली दोषियों को सजा नहीं मिलती
कुछ हाई-प्रोफाइल केसों में कानूनी लीकेज का फायदा उठाकर बचाव पक्ष प्रॉसीक्यूशन को पछाड़ देता है। इस केस में भी वही प्रतीत होता है।
निष्कर्ष: न्याय की परिभाषा और प्रॉसीक्यूशन की भूमिका पर पुनः चिंतन आवश्यक
मुंबई लोकल ट्रेन ब्लास्ट केस में सभी आरोपी बरी हो गए — तो क्या असली दोषी अब भी आज़ाद हैं?
यह हमारे कानून व्यवस्था, प्रॉसीक्यूशन की दक्षता और राजनीतिक इच्छाशक्ति पर गहरा प्रश्नचिन्ह लगाता है।
इस पर राष्ट्रीय स्तर पर पुनर्विचार और सुधार की सख्त आवश्यकता है।
संकलनकर्ता लेखक:क़ानूनी विशेषज्ञ, स्तंभकार, अंतरराष्ट्रीय चिंतक, साहित्यकार, कवि, संगीत माध्यमा सीए (एटीसी)एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं, गोंदिया, महाराष्ट्र