आतंकवादियों को बरी किए जाने से पीड़ित परिवारों को गहरा आघात, जांच व अभियोजन की विफलता उजागर

– सुरेश गोयल ‘धूप वाला’
पूर्व जिला महामंत्री, भाजपा – हिसार

बॉम्बे उच्च न्यायालय द्वारा 2006 के मुंबई लोकल ट्रेन बम धमाकों के मामले में सभी 12 दोषियों को बरी किए जाने का निर्णय न केवल स्तब्ध करने वाला है, बल्कि यह भारतीय न्याय व्यवस्था की एक गहरी विफलता को भी रेखांकित करता है। उस वीभत्स हमले में सात ट्रेनों को निशाना बनाकर करीब 190 निर्दोष लोगों की जान ली गई थी और 800 से अधिक लोग गंभीर रूप से घायल हुए थे। यदि इतने वर्षों के बाद भी कोई दोष सिद्ध नहीं हो सका, तो यह हमारे विधिक तंत्र की कमजोरी और विफलता का स्पष्ट प्रमाण है।

आज भी देश का आम नागरिक न्यायपालिका को अपनी अंतिम आस के रूप में देखता है। लेकिन यदि आतंकवाद जैसे जघन्य अपराधों में भी वर्षों बाद न्याय की उम्मीद पर पानी फिर जाए, तो यह लोकतंत्र की नींव को ही हिला देने वाली स्थिति है। यह फैसला पीड़ितों और उनके परिजनों के जख्मों को और गहरा करता है, और समाज में यह भयावह संदेश देता है कि चाहे जितना भी बड़ा अपराध हो, यदि कानूनी साक्ष्य कमजोर हैं तो अपराधी बच निकलते हैं।

यहां दो मुख्य पहलुओं पर कठोर आत्मचिंतन की आवश्यकता है – पहला, हमारी जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली, और दूसरा, अभियोजन पक्ष की क्षमता। यदि इतने वर्षों बाद भी ठोस, वैध और विश्वसनीय साक्ष्य प्रस्तुत नहीं हो सके, तो दोष केवल न्यायालय का नहीं, बल्कि पूरी प्रणाली का है। न्यायालय प्रमाणों के आधार पर ही निर्णय लेता है, लेकिन उन प्रमाणों की कमी या प्रस्तुति की विफलता हमारे सिस्टम की गंभीर खामियों को उजागर करती है।

अब सवाल उठता है – क्या उन निर्दोष मृतकों की आत्माएं कभी शांति पा सकेंगी? क्या उनके परिजन चैन की नींद ले पाएंगे? न्याय में देरी को पहले ही अन्याय माना गया है, और जब अंतिम फैसला भी पीड़ितों के खिलाफ प्रतीत हो, तो यह अन्याय की पराकाष्ठा बन जाती है।

इस निर्णय से अपराधियों का मनोबल बढ़ने की आशंका है। यदि न्यायिक प्रणाली आतंकवादियों को सजा नहीं दिला सकी, तो आम नागरिक की सुरक्षा और विश्वास दोनों खतरे में हैं। यह फैसला सिर्फ एक मामला नहीं, बल्कि पूरे तंत्र के लिए चेतावनी है – एक खतरे की घंटी।

समय आ गया है कि देश की जांच एजेंसियां, अभियोजन प्रणाली, और न्यायिक प्रक्रिया आत्मविश्लेषण करें। क्या हम वाकई एक सशक्त राष्ट्र हैं जो आतंकवाद के खिलाफ लड़ सकता है, या केवल तकनीकी औपचारिकताओं में उलझे एक निष्क्रिय व्यवस्था?

इतिहास इस फैसले को एक दुखद मोड़ के रूप में याद रखेगा – जहां न्याय के आदर्शों को नकार दिया गया, और पीड़ितों की पीड़ा को अनसुना कर दिया गया।

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