प्रियंका सौरभ

राजस्थान के झालावाड़ में एक सरकारी स्कूल की छत गिरने से मासूम बच्चों की मौत हो गई। इसे कुछ लोग “हादसा” कहेंगे, लेकिन असल में यह एक व्यवस्थागत हत्या है—जिसके कातिल हैं सिस्टम, ठेकेदार, प्रशासन, और हम सब।
हमारी संवेदनहीनता इतनी बढ़ गई है कि मासूमों की मौत पर अब सिर्फ “श्रद्धांजलि” लिख कर आगे बढ़ जाना काफी लगता है। सवाल उठता है—क्या बच्चों की मौत अब “न्यू नॉर्मल” बन चुकी है?
यह छत भ्रष्टाचार, लापरवाही और ‘चलता है’ की मानसिकता की नींव पर खड़ी थी। जब ईमानदारी गायब होती है, तो ज़मीर गिरती है। और जब ज़मीर गिरती है, तब स्कूल की छतें भी गिरती हैं।
निर्माण कार्य में शामिल हर जिम्मेदार व्यक्ति—ठेकेदार, इंजीनियर, अधिकारी—अगर अपनी जिम्मेदारी से भागा, तो वह दोषी है। यह सिर्फ सीमेंट और ईंटों की नहीं, संविधान की आत्मा की भी छत थी जो गिरी है।
ऐसे हादसों के बाद वही विभाग जांच करते हैं, जिनकी मिलीभगत से हादसे हुए। न किसी मंत्री का इस्तीफा, न ही किसी अधिकारी की जवाबदेही तय होती है।
ये सिर्फ हादसे नहीं, एक पैटर्न है—“ठेकेदारी तंत्र” का, जो राजनीति, नौकरशाही और व्यापार के गठजोड़ से बना है। और इसके नीचे हमेशा जनता दबती है, खासकर बच्चे।
मुआवज़े से माँ की गोद नहीं भरती। समस्या केवल भवनों की नहीं, सोच की है। जब तक ‘जुगाड़’ और ‘चलता है’ वाली मानसिकता रहेगी, तब तक हादसे दोहराए जाएंगे।
समाधान क्या है?
- हर सरकारी निर्माण का Live Audit हो
- निर्माण सामग्री की स्वतंत्र जांच
- RTI के तहत स्कूल भवनों की गुणवत्ता की रिपोर्ट
- स्थानीय समाज को निगरानी का अधिकार
- न्यायिक हस्तक्षेप और दोषियों पर गैर-जमानती मुकदमे
पत्रकारों को भी गहराई से सवाल पूछने चाहिए—“क्यों मरे?”, “किसकी लापरवाही?”, “अब क्या कार्रवाई?” वरना वे भी इस तंत्र का हिस्सा बन जाएंगे।
आज ज़रूरत श्रद्धांजलि की नहीं, इंसाफ़ की है। और इंसाफ़ तभी मिलेगा, जब ज़मीर जगेगी, जब हर ईंट में ईमान होगा, और जब समाज खामोश रहना छोड़ देगा।
हर गिरती छत हमसे पूछ रही है—क्या अब भी तुम्हारी ज़मीर ज़िंदा है?