✍️ विजय गर्ग
(सेवानिवृत्त प्रिंसिपल, मलोट, पंजाब)

एक बदलती सामाजिक सच्चाई

भारत में लिव-इन रिलेशनशिप एक जटिल सामाजिक वास्तविकता बन गई है। यह जहां एक ओर व्यक्तिगत स्वतंत्रता और पसंद का प्रतीक है, वहीं दूसरी ओर इसके कानूनी दायरे, खासकर संपत्ति के अधिकारों को लेकर, अब भी भ्रम की स्थिति बनी हुई है।

पारंपरिक विवाह के इतर इस रिश्ते में रहने वाले भागीदारों के लिए संपत्ति का अधिकार अक्सर एक अंधकारमय गलियारे जैसा होता है, जहां न्याय की राह आसान नहीं होती।

सामाजिक मानदंडों में हो रहे बदलाव और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर बढ़ते जोर के कारण यह रिश्ता अब केवल महानगरों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि छोटे शहरों और कस्बों में भी तेजी से फैल रहा है।

संपत्ति अधिकार: एक अनसुलझी चुनौती

इस बढ़ती प्रवृत्ति के साथ कई कानूनी और सामाजिक चुनौतियाँ भी सामने आ रही हैं।
सबसे प्रमुख चुनौती यह है कि लिव-इन पार्टनर्स के संपत्ति अधिकार को लेकर कोई स्पष्ट कानून मौजूद नहीं है।

उदाहरण:
एक पार्टनर कमाता है और दूसरा घर संभालता है – लेकिन संपत्ति एक के नाम होती है। ऐसे में रिश्ते टूटने पर कौन कितने हिस्से का हक़दार है, यह तय करना बेहद मुश्किल हो जाता है।

भावनात्मक और सामाजिक दबाव, खासकर महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए लड़ने से भी रोकता है।

वसीयत और उत्तराधिकार: और भी बड़ी उलझन

यदि किसी लिव-इन पार्टनर की मृत्यु हो जाए और कोई वसीयत (Will) न हो, तो उत्तराधिकार (Inheritance) का दावा करना लगभग असंभव हो जाता है।

भारतीय कानून विवाह को केंद्र में रखकर उत्तराधिकार की व्याख्या करता है, जिससे लिव-इन संबंधों में रहने वालों को कई बार कानूनी असुरक्षा का सामना करना पड़ता है।

सुप्रीम कोर्ट के फैसलों ने खोला रास्ता

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने कुछ महत्वपूर्ण मामलों में लिव-इन पार्टनर्स के अधिकारों को परिभाषित करने का प्रयास किया है:

  1. एस. खुशबू बनाम कन्नियाम्मल (2010):
    लिव-इन रिलेशनशिप को जीवन के अधिकार का हिस्सा माना गया।
  2. डी. वेलुसामी बनाम डी. पचईअम्मल (2010):
    यदि पार्टनर ने संपत्ति में प्रत्यक्ष योगदान दिया हो तो अधिकार हो सकता है।
  3. इंद्र सरमा बनाम वी.के.वी. सरमा (2013):
    लिव-इन महिला को भरण-पोषण का अधिकार मिला।
  4. धन्नूलाल बनाम गणेशराम (2015):
    लंबे समय तक साथ रहने वाले पुरुष और महिला को विवाहित माना गया, जिससे महिला को संपत्ति में विरासत का अधिकार मिला।
  5. कट्टुकंडी इडाथिल कृष्णन बनाम वाल्सन (2022):
    लिव-इन से जन्मे बच्चों को वैध माना गया और पैतृक संपत्ति में हिस्सा देने की बात कही गई।

समाधान की दिशा में

आज समय की मांग है कि इस जटिलता को दूर करने के लिए स्पष्ट कानून बनाए जाएं। इसके लिए कुछ सुझाव:

लिव-इन संबंधों का स्वैच्छिक पंजीकरण
‘पार्टनरशिप एग्रीमेंट’ की अनिवार्यता
वित्तीय योगदान का दस्तावेजीकरण
वसीयत बनाने की कानूनी सलाह
जन-जागरूकता और कानूनी साक्षरता का प्रसार

निष्कर्ष

लिव-इन रिलेशनशिप आधुनिक भारत की हकीकत है, जिसे अब नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
जहां न्यायपालिका ने कुछ रास्ते खोले हैं, वहीं कानून निर्माताओं को भी आगे आकर स्पष्ट दिशा-निर्देश देने की जरूरत है।

अगर हम चाहते हैं कि रिश्तों में समानता, सुरक्षा और सम्मान बना रहे, तो इन अधिकारों को कानूनी स्पष्टता देना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए।

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