सभाओं में बातों के मूल विषय को अपने फायदे के अनुसार तोड़ मरोड़कर उसका भाव या अभिप्राय बदलने से बचने की ज़रूरत

– एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं

आजकल समाज में यह देखा जा रहा है कि लोगों ने बातों का भाव और अभिप्राय अपने फायदे के अनुसार बदलने की आदत बना ली है। चाहे वह राजनीतिक मंच हो, या किसी निजी बहस का विषय, छोटे-छोटे मुद्दों को बढ़ा-चढ़ाकर एक बड़े विवाद में तब्दील करना आम हो गया है। यही वजह है कि हमारे समाज में ‘बात का बतंगड़’, ‘तिल का ताड़’ और ‘राई का पहाड़’ जैसे मुहावरे रोज़मर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन गए हैं।

मुहावरों की सार्थकता

भारत में, हमारी सांस्कृतिक धरोहर में कहावतों और मुहावरों का एक खास स्थान है। ये न केवल हमारी सामाजिक समझ को गहराई से व्यक्त करते हैं, बल्कि हमें जीवन के विभिन्न पहलुओं को सरलता से समझने का अवसर भी प्रदान करते हैं। आज हम इन मुहावरों के माध्यम से उन परिस्थितियों पर चर्चा करेंगे, जहां छोटी-सी बात बड़ी बहस में बदल जाती है और क्या इसके पीछे छिपा मनोविज्ञान हो सकता है।

राजनीति में बात का बतंगड़

विशेषकर चुनावी माहौल में, यह देखने को मिलता है कि राजनीतिक पार्टियां और उनके समर्थक छोटी बातों को तिल का ताड़ बना देते हैं। यह स्थिति दिल्ली विधानसभा चुनाव के संदर्भ में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है, जहां नेताओं ने छोटी बातों को बढ़ाकर सार्वजनिक मंचों पर प्रसारित किया। लेकिन चुनाव के बाद, जब परिणाम सामने आएंगे, तो ये सारी बातें महज एक चुनावी दांव-पेंच साबित होंगी। चुनावी संवादों में तिल का ताड़ और राई का पहाड़ बनाने की आदत समाज में गहरी पैठ बना चुकी है।

मनोविज्ञान और सामाजिक प्रभाव

‘बात का बतंगड़’ का मनोवैज्ञानिक पक्ष भी विचारणीय है। बहुत से लोग किसी मुद्दे को सीधे तौर पर नहीं उठाते, बल्कि उसे घुमा-फिरा कर पेश करते हैं। इसका कारण यह हो सकता है कि वे किसी चीज़ को जानने की इच्छा रखते हैं, लेकिन सीधे प्रश्न पूछने में हिचकते हैं। इसके अलावा, वे अपनी कमजोरियों को छुपाने के लिए भी बातों को घुमा सकते हैं। इस तरह की बातें अंततः उनके फायदे में बदल जाती हैं, और वे लोगों की व्यक्तिगत जानकारी प्राप्त कर लेते हैं। इसलिए, हमें हमेशा सतर्क रहना चाहिए और अपनी निजी बातों को बिना सोचे-समझे नहीं साझा करना चाहिए।

समाज में छोटे विवादों का बढ़ना

अगर हम समाज में घटित घटनाओं पर गौर करें, तो यह साफ दिखता है कि एक छोटी सी बात को बढ़ा-चढ़ाकर विवाद का रूप दे दिया जाता है। कभी गली में बच्चे का खेलना, कभी पार्क में किसी का शोर मचाना, और कभी गाड़ी की हल्की टक्कर—इन जैसी घटनाओं को तिल का ताड़ बना दिया जाता है। अगर हम इन छोटी बातों को माफी और समझदारी से सुलझा लें, तो कई समस्याएं सुलझ सकती हैं।

बात का बतंगड़ और राजनीति

राजनीति में यह अधिक आम है कि जब तक कोई स्पष्टीकरण आता है, तब तक ‘बात का बतंगड़’ बन चुका होता है। नेताओं और उनके समर्थकों के बयान अक्सर तोड़े-मरोड़े जाते हैं और समाज में गलत संदेश फैलाया जाता है। इसीलिए, हमें यह समझना चाहिए कि छोटी बातों को अधिक बढ़ावा देने के बजाय, हमें उन्हें समय रहते सुलझाना चाहिए।

समाज के प्रति जिम्मेदारी

हर व्यक्ति को यह जिम्मेदारी लेनी चाहिए कि वह अपनी वाणी का प्रयोग समझदारी से करें और छोटी-छोटी बातों को बढ़ाकर समाज में नकारात्मक माहौल न बनाए। हमें समाज में सकारात्मक सोच और समझ को बढ़ावा देने के लिए छोटे-छोटे प्रयास करने चाहिए। अगर हम ऐसा करेंगे, तो हमारा समाज अधिक समृद्ध और जागरूक बनेगा।

निष्कर्ष

आज के समय में बातों का बढ़ा-चढ़ाकर विवाद बनाना एक सामान्य प्रवृत्ति बन चुकी है। इसलिए, हमें यह समझने की जरूरत है कि ‘बात का बतंगड़’, ‘तिल का ताड़’ और ‘राई का पहाड़’ जैसे मुहावरों का उपयोग करते समय हमें अपने शब्दों के प्रभाव को समझना चाहिए और समाज में शांति और समझदारी बनाए रखने के लिए सावधानीपूर्वक अपनी वाणी का प्रयोग करना चाहिए।

-संकलनकर्ता लेखक – क़र विशेषज्ञ स्तंभकार साहित्यकार अंतरराष्ट्रीय लेखक चिंतक कवि संगीत माध्यमा सीए(एटीसी) एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र 9284141425

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