लिंग चयनात्मक गर्भपात पर जीरो टॉलरेंस की आवश्यकता

बेटे को प्राथमिकता देने की परंपराओं को समाप्त कर, सभी लिंगों के लिए समान अधिकारों को बढ़ावा देने को प्राथमिकता देना ज़रूरी

– एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी

बेटियां न केवल परिवार की शान होती हैं, बल्कि समाज और राष्ट्र की उन्नति में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा के रूप में उनकी उपस्थिति हमारे जीवन को समृद्ध और संतुलित बनाती है। फिर भी, समाज में बेटों को प्राथमिकता देने की प्रवृत्ति और लिंग-चयनात्मक गर्भपात जैसी प्रथाएँ आज भी कायम हैं। यह न केवल नैतिक और सामाजिक रूप से गलत है, बल्कि इससे समाज में असंतुलन भी पैदा होता है।

लिंग चयनात्मक गर्भपात: एक वैश्विक समस्या
वैश्विक स्तर पर, लिंग भेद और लिंग-चयनात्मक गर्भपात की प्रवृत्ति एक समय में चरम पर थी। कई देशों में इस कुप्रथा के चलते लिंग अनुपात में भारी असमानता देखी गई। हालांकि, सरकारों ने इसे नियंत्रित करने के लिए सख्त कानून और जागरूकता अभियान चलाए, जिससे इसमें कुछ हद तक कमी आई।

भारत में भी 1994 से पहले लिंग-चयनात्मक गर्भपात तेजी से हो रहे थे, जिससे स्त्री-पुरुष अनुपात में भारी अंतर आ गया। इसे रोकने के लिए 1994 में गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीकी (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम लागू किया गया। 2003 में इस कानून को और कड़ा किया गया, जिससे लिंग-चयनात्मक गर्भपात पर कुछ हद तक नियंत्रण पाया गया।

हालांकि, 80-90 के दशक में जो गर्भपात हुए, उनके परिणाम आज भी समाज में देखे जा सकते हैं। आज कई युवक विवाह के लिए उपयुक्त जीवनसाथी खोजने में कठिनाई महसूस कर रहे हैं क्योंकि उस समय की गई लिंग भेदभावपूर्ण घटनाओं ने लड़कियों की संख्या को कम कर दिया।

बेटियों के महत्व को समझना जरूरी
समाज में आज भी बेटियों को कई जगहों पर बोझ समझा जाता है, जबकि वे परिवार और समाज का अभिन्न अंग होती हैं। भारत और चीन जैसे देशों में लिंग-चयनात्मक गर्भपात की घटनाएँ देखने को मिलती हैं, हालांकि यह समस्या केवल एशिया तक सीमित नहीं है, बल्कि यह पूर्वी यूरोप, मध्य पूर्व और अन्य क्षेत्रों में भी मौजूद है।

बेटियों का सम्मान करने और उनके अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बेटी दिवस मनाया जाता है। इसका उद्देश्य न केवल बेटियों के प्रति जागरूकता बढ़ाना है, बल्कि समाज में बेटे-बेटी के बीच समानता स्थापित करना भी है।

बेटियों के प्रति जनजागरण के 5 प्रमुख कारण
संयुक्त और सशक्त परिवार: बेटियाँ परिवार को भावनात्मक रूप से समृद्ध बनाती हैं और मजबूत पारिवारिक बंधन स्थापित करने में सहायक होती हैं।

लैंगिक समानता को बढ़ावा: समाज में लड़कों को अधिक महत्व देने की प्रवृत्ति को बदलने और बेटियों को समान अवसर प्रदान करने के लिए यह जरूरी है।

पुरानी रूढ़ियों को चुनौती: बेटियाँ केवल घर तक सीमित नहीं होतीं; वे अपने सपनों को साकार कर सकती हैं और समाज में अपनी अलग पहचान बना सकती हैं।

सशक्तिकरण और आत्मनिर्भरता: बेटियों को आत्मनिर्भर बनने के अवसर देना समाज के लिए भी लाभकारी है।

माता-पिता और बेटी के रिश्ते को मजबूत करना: बेटियों के साथ अधिक समय बिताने और उनके भविष्य के लिए निवेश करने से समाज की सोच में सकारात्मक बदलाव आ सकता है।

बदलते भारत में बेटियों की भूमिका
आज भारत में बेटियाँ हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर रही हैं। हाल ही में राजस्थान में एक महिला सरपंच का उदाहरण सामने आया, जिसने घूंघट में रहते हुए अंग्रेजी में प्रभावी भाषण दिया और जल संरक्षण पर चर्चा की। यह दर्शाता है कि बेटियाँ न केवल शिक्षित हो रही हैं, बल्कि समाज को भी जागरूक कर रही हैं।

निष्कर्ष
बेटियों को कमतर आंकना न केवल सामाजिक अन्याय है, बल्कि यह भविष्य में समाज के लिए असंतुलन भी पैदा कर सकता है। हमें बेटों और बेटियों को समान अवसर देने, लिंग चयनात्मक गर्भपात पर पूर्ण रोक लगाने और समाज में बेटियों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करने की आवश्यकता है।

जब बेटियाँ हंसती हैं तो मोती झड़ते हैं, और जब वे आगे बढ़ती हैं, तो समाज प्रगति करता है।

-संकलनकर्ता लेखक – क़र विशेषज्ञ स्तंभकार साहित्यकार अंतरराष्ट्रीय लेखक चिंतक कवि संगीत माध्यमा सीए(एटीसी) एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र

Share via
Copy link