“अगर आधी आबादी होते हुए भी महिलाएँ इस आबादी की कहानियाँ नहीं कहेंगी, तो कौन कहेगा?”

-प्रियंका सौरभ

महिला सशक्तिकरण कोई एक दिन की चर्चा नहीं, बल्कि निरंतर संघर्ष का विषय है। महिला दिवस केवल एक अवसर है, लेकिन बदलाव की लड़ाई हर दिन लड़नी होगी। छोटी शुरुआत ही सही, लेकिन हर किसी को इस दिशा में कदम बढ़ाने होंगे। यह संघर्ष केवल समान वेतन, कार्यस्थल पर सुरक्षा या राजनीतिक भागीदारी तक सीमित नहीं है, बल्कि एक ऐसे समाज के निर्माण का संघर्ष है जहाँ महिलाओं को बार-बार अपनी पहचान साबित न करनी पड़े।

महिला भागीदारी: लोकतंत्र और विकास की अनिवार्यता

भारत में महिलाएँ कुल जनसंख्या का लगभग 48% हैं, लेकिन लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व 15% से भी कम है। यह अल्प प्रतिनिधित्व महिलाओं के अधिकारों, कार्यस्थल सुरक्षा और आर्थिक अवसरों की अनदेखी का प्रमुख कारण बनता है। राजनीतिक और सामाजिक निर्णयों में महिलाओं की भागीदारी केवल उनका अधिकार ही नहीं, बल्कि न्यायसंगत और समावेशी विकास की अनिवार्यता भी है। अमेरिका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस ने सही कहा था, “लोकतंत्र का स्तर मूल रूप से महिलाओं के सशक्तीकरण पर निर्भर करता है।”

लैंगिक असमानता और संरचनात्मक बाधाएँ

महिलाओं को निर्णय लेने की प्रक्रिया से बाहर रखने से उनका सशक्तिकरण कमजोर पड़ जाता है। इसके प्रमुख कारण हैं:

लैंगिक पूर्वाग्रह और भेदभाव
कार्यस्थल संस्कृति में असमानता
सामाजिक और पारिवारिक निर्णयों में महिलाओं की सीमित भागीदारी

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार कार्यालय के अनुसार, महिलाओं को निर्णायक भूमिकाओं में लाना ही उनके हितों की रक्षा की गारंटी है। लेकिन आज भी कई कार्यस्थल POSH (Prevention of Sexual Harassment) अधिनियम, 2013 का पालन नहीं करते, जिससे महिलाएँ असुरक्षित महसूस करती हैं।

महिला सशक्तिकरण में न्यायपालिका की भूमिका

हाल के वर्षों में भारतीय न्यायपालिका ने महिला अधिकारों की रक्षा में महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं:

✔️ सुप्रीम कोर्ट ने 2024 में दो महिला न्यायाधीशों को बहाल किया, यह तय करते हुए कि गर्भावस्था के कारण किसी महिला को नौकरी से निकालना अवैध और दंडनीय है।
✔️ 2017 के शायरा बानो मामले में ट्रिपल तलाक को अपराध घोषित किया गया, जिससे मुस्लिम महिलाओं के वैवाहिक अधिकार सुरक्षित हुए।
✔️ 2020 में विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पुष्टि की कि बेटियों को भी पैतृक संपत्ति में समान अधिकार हैं।

यह स्पष्ट करता है कि महिला सशक्तिकरण केवल सामाजिक सुधारों से नहीं, बल्कि ठोस कानूनी और न्यायिक सुरक्षा से भी संभव है।

महिला समानता के लिए आवश्यक कदम

???? 33% महिला आरक्षण: महिला आरक्षण विधेयक को पूरी तरह से लागू किया जाए।
???? लिंग-संवेदनशील नीतियाँ: कार्यस्थलों पर समान वेतन और मातृत्व लाभ कानूनों को प्रभावी ढंग से लागू किया जाए।
???? शिक्षा और कौशल विकास: स्कूलों में लैंगिक समानता आधारित पाठ्यक्रम शामिल किए जाएँ।
???? तेज़ न्याय प्रणाली: कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न के मामलों के लिए फास्ट-ट्रैक न्यायालय बनाए जाएँ।
???? महिला उद्यमिता को बढ़ावा: महिलाओं को व्यवसाय स्थापित करने के लिए बड़े ऋण और प्रोत्साहन दिए जाएँ।

समाज की सोच बदले बिना बदलाव अधूरा है

“कोई भी देश अपनी आधी आबादी को पीछे छोड़कर आगे नहीं बढ़ सकता।” जब तक समाज की मानसिकता नहीं बदलेगी, तब तक नीतियाँ और कानून भी अधूरे रहेंगे। महिलाओं को सहानुभूति नहीं, बल्कि समान अवसर चाहिए। यह आवश्यक है कि महिलाओं को उनके टैलेंट और मेहनत के आधार पर सराहा जाए, न कि सिर्फ़ उनकी पहचान के आधार पर।

अंतहीन संघर्ष, लेकिन अटूट संकल्प

महिला समानता की यह लड़ाई एक दिन, एक कानून, या एक नीति से पूरी नहीं होगी। यह एक सतत प्रक्रिया है, जिसे हर स्तर पर अपनाना होगा। सार्थक बदलाव लाने के लिए महिलाओं की भागीदारी और नेतृत्व को हर क्षेत्र में प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

???? अब समय आ गया है कि महिलाएँ खुद अपनी कहानियाँ कहें, अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाएँ और एक न्यायसंगत, समावेशी समाज के निर्माण में योगदान दें। ????

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