विजय गर्ग……….. सेवानिवृत्त प्रिंसिपल

यह खबर विचलित करती है कि देश के करोड़ों मरीज अत्यधिक महंगे इलाज की चक्की में पिसकर गरीबी की दलदल में धंस जाते हैं। वे उन डॉक्टरों और अस्पतालों के आगे बेबस हो जाते हैं, जिन्हें अक्सर ‘दूसरा भगवान’ कहा जाता है। विशेष रूप से बड़े ऑपरेशनों, अत्याधुनिक उपकरणों और महंगी दवाओं के नाम पर मरीजों का शोषण चरम पर है।

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने इस गंभीर स्थिति पर संज्ञान लेते हुए केंद्र और राज्य सरकारों को निर्देश दिया है कि वे निजी अस्पतालों में मरीजों के शोषण को रोकने के लिए ठोस नीतिगत कदम उठाएं। एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा कि नागरिकों को सुलभ और किफायती चिकित्सा सुविधा देना राज्य सरकारों का संवैधानिक कर्तव्य है, लेकिन वे इसमें बुरी तरह विफल रही हैं। यह तब और विडंबनापूर्ण हो जाता है जब यही सरकारें बड़े निजी अस्पतालों को रियायती दरों पर जमीन और अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराती हैं, लेकिन बदले में आम जनता के लिए किफायती इलाज की कोई अनिवार्यता तय नहीं करतीं।

सरकारी उदासीनता, मरीजों की मजबूरी

राजनीतिक दल चुनावों में तो लोक-कल्याणकारी नारे उछालते हैं, लेकिन चिकित्सा व्यवस्था को सुलभ और किफायती बनाने की कोई ठोस नीति आज तक नहीं बना पाए। यदि सार्वजनिक चिकित्सा ढांचा मजबूत होता, तो लोग मजबूरन निजी अस्पतालों का रुख न करते। यदि सख्त निगरानी तंत्र और प्रभावी कानून होते, तो मरीजों को इस मनमाने दोहन का शिकार न बनना पड़ता।

यह नाकामी तब और स्पष्ट हो जाती है जब निजी अस्पताल मरीजों से अपनी मनचाही कीमत वसूलते हैं और सरकारें इसे रोकने में नाकाम रहती हैं। सर्वोच्च न्यायालय का यह कहना कि उचित मूल्य की दवाइयों की उपलब्धता सुनिश्चित करना राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है, यह दर्शाता है कि सरकारें इस मोर्चे पर कितनी निष्क्रिय रही हैं।

मेडिकल स्टोर की मजबूरी या जबरदस्ती?

सरकारें भले ही यह दावा करें कि मरीजों के परिजनों को निजी अस्पतालों से दवाइयां खरीदने की बाध्यता नहीं है, लेकिन हकीकत कुछ और ही बयां करती है। मरीजों के परिजन अस्पताल की फार्मेसी या उनसे संबद्ध मेडिकल स्टोर से महंगी दवाएं खरीदने को मजबूर होते हैं। उन्हें खास ब्रांड की दवा और उपकरण खरीदने के निर्देश दिए जाते हैं, भले ही खुले बाजार में सस्ती और गुणवत्ता वाली जेनेरिक दवाएं उपलब्ध हों।

राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (NMC) जब 2023 में डॉक्टरों को ब्रांडेड दवाओं की बजाय जेनेरिक दवाएं लिखने का निर्देश देने वाला था, तब दवा कंपनियों और चिकित्सा बिरादरी के दबाव में इसे वापस लेना पड़ा। यह स्पष्ट दिखाता है कि मुनाफे का खेल जन-कल्याण पर हावी हो रहा है।

सरकारी जन-औषधि केंद्र: उम्मीद या धोखा?

सरकार ने ‘प्रधानमंत्री भारतीय जन-औषधि परियोजना’ के तहत 15,000 से अधिक जन-औषधि केंद्र खोलने का दावा किया, जिनका उद्देश्य सस्ती और गुणवत्तापूर्ण दवाइयां उपलब्ध कराना था। लेकिन वास्तविकता यह है कि ये केंद्र दवाओं की कमी, गुणवत्ता नियंत्रण की अनुपस्थिति और ब्रांडेड दवाओं की गैर-कानूनी बिक्री जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। यदि ये केंद्र प्रभावी रूप से काम कर रहे होते, तो निजी अस्पतालों की फार्मेसी पर निर्भरता इतनी अधिक नहीं होती।

सात गुना महंगा इलाज और बढ़ती परेशानी

एक रिपोर्ट के अनुसार, सरकारी अस्पतालों की तुलना में निजी अस्पतालों का खर्च सात गुना अधिक है। खासकर कोरोना महामारी के बाद चिकित्सा खर्चों में बेतहाशा वृद्धि हुई है। इससे यह स्पष्ट होता है कि गरीब और मध्यमवर्गीय परिवार इलाज के खर्च के कारण कर्ज में डूबने को मजबूर हो रहे हैं।

क्या किया जाना चाहिए?

राज्य सरकारों को चाहिए कि वे मरीजों के शोषण को रोकने के लिए प्रभावी गाइडलाइंस बनाएं।

  • निजी अस्पतालों की पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए निगरानी तंत्र को मजबूत किया जाए।
  • मरीजों को सस्ती दवाएं उपलब्ध कराने के लिए जन-औषधि केंद्रों की गुणवत्ता में सुधार किया जाए।
  • डॉक्टरों को जेनेरिक दवाएं लिखने के लिए प्रोत्साहित किया जाए, ताकि मरीजों को सस्ता और गुणवत्तापूर्ण इलाज मिल सके।
  • निजी अस्पतालों द्वारा अत्यधिक बिलिंग पर सख्त नियंत्रण लागू किया जाए।

चिकित्सा सेवा कोई विलासिता नहीं, बल्कि एक बुनियादी अधिकार है। सरकारों को इस ओर गंभीर कदम उठाने होंगे, अन्यथा मरीजों की जेबों की यह ‘सर्जरी’ यूं ही चलती रहेगी।

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