✍ विजय गर्ग …….. सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब

बीसवीं सदी के आरंभ में मानवता प्लेग, हैजा, तपेदिक, डिप्थीरिया और निमोनिया जैसे असंख्य रोगों के सामने लाचार थी। ऐसे समय में एंटीबायोटिक्स ने एक वरदान के रूप में मानव जाति को संजीवनी दी। इस खोज ने न केवल जीवन प्रत्याशा को बढ़ाया, बल्कि नवजात शिशुओं की मृत्यु दर को घटाया और सर्जरी जैसे चिकित्सा क्षेत्रों को भी सुरक्षित बनाया। परंतु आज, जब हम एंटीबायोटिक प्रतिरोध (Antimicrobial Resistance – AMR) की वैश्विक महामारी के कगार पर खड़े हैं, तो यह वरदान धीरे-धीरे अभिशाप में परिवर्तित होता प्रतीत हो रहा है।

हाल ही में मर्डोक चिल्ड्रन रिसर्च इंस्टीट्यूट और क्लिंटन हेल्थ एक्सेस इनिशिएटिव द्वारा प्रकाशित एक अध्ययन में यह खुलासा हुआ है कि वर्ष 2022 में 30 लाख से अधिक बच्चों की मृत्यु ऐसे संक्रमणों के कारण हुई, जो अब एंटीबायोटिक्स के प्रति प्रतिरोधी हो चुके हैं। यह केवल एक आंकड़ा नहीं, बल्कि हमारी वैज्ञानिक समझ और उपयोग के प्रति लापरवाही का गंभीर संकेत है।

कैसे पैदा होता है एएमआर?

रोगाणुरोधी प्रतिरोध (AMR) तब उत्पन्न होता है जब बैक्टीरिया, वायरस या फफूंद जैसे सूक्ष्मजीव दवाओं के विरुद्ध अपनी प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेते हैं। इसका मुख्य कारण है – एंटीबायोटिक्स का अत्यधिक, अनुचित और लापरवाह प्रयोग। आमतौर पर लोग बिना डॉक्टर की सलाह के दवाएं लेना शुरू कर देते हैं, लक्षणों के हल्का होते ही इलाज अधूरा छोड़ देते हैं या जुकाम-खांसी जैसी मामूली समस्याओं में भी एंटीबायोटिक्स का सेवन कर लेते हैं।

कोविड-19 महामारी ने इस प्रवृत्ति को और अधिक बढ़ावा दिया। भय और भ्रम की स्थिति में अस्पतालों तथा लोगों ने वायरल संक्रमणों में भी एंटीबायोटिक्स का उपयोग शुरू कर दिया, जबकि एंटीबायोटिक्स का वायरस पर कोई प्रभाव नहीं होता।

बच्चों पर सबसे गंभीर असर

एएमआर का सबसे भयावह प्रभाव छोटे बच्चों पर पड़ा है, विशेषकर अफ्रीका और दक्षिण-पूर्व एशिया जैसे विकासशील क्षेत्रों में, जहां पहले से ही स्वास्थ्य सेवाएं कमजोर हैं। वहां दवाओं की गुणवत्ता और उपलब्धता की समस्या, चिकित्सकीय सलाह की कमी, जागरूकता का अभाव और खुले बाजार में बिना पर्ची के दवा वितरण – इन सबने स्थिति को और बिगाड़ दिया है।

भारत में भी स्थिति कुछ अलग नहीं है। फार्मेसी से बिना डॉक्टर की सलाह के दवाएं लेना आम बात हो गई है। नतीजतन, इलाज अधूरा रह जाता है और रोगाणुओं को प्रतिरोध विकसित करने का अवसर मिल जाता है। यह एक चक्रव्यूह बन गया है, जिसमें फंसकर आम नागरिक, विशेषकर बच्चे, अपनी जान गंवा रहे हैं।

समाधान की राह – विवेकपूर्ण विज्ञान

इस संकट का समाधान भी विज्ञान के पास ही है, बशर्ते हम इसे केवल त्वरित समाधान के रूप में न देखकर दीर्घकालिक दृष्टिकोण से अपनाएं। इसके लिए आवश्यक है:

  1. नीतिगत बदलाव – सरकार को एंटीबायोटिक्स की बिक्री पर सख्त नियंत्रण लागू करना होगा। बिना चिकित्सकीय परामर्श के दवाओं की बिक्री पर रोक जरूरी है।
  2. जन-जागरूकता – लोगों को यह समझाना होगा कि एंटीबायोटिक्स कोई सामान्य दवा नहीं है, इसका उपयोग तभी करें जब चिकित्सक सलाह दें।
  3. डॉक्टरों की भूमिका – चिकित्सकों को भी जिम्मेदारी के साथ केवल ज़रूरत होने पर ही एंटीबायोटिक्स लिखनी चाहिए।
  4. स्वास्थ्य सेवाओं को सुदृढ़ करना – ग्रामीण और दूरदराज़ क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाएं मजबूत की जाएं, ताकि लोग सस्ती और प्रभावी चिकित्सा सेवाओं तक पहुंच सकें।

यदि समय रहते हम नहीं चेते, तो वह दिन दूर नहीं जब साधारण से संक्रमण भी जानलेवा बन जाएंगे, और हम उस अंधकार युग में लौट जाएंगे, जहां चिकित्सा विज्ञान की कोई किरण नहीं पहुंचती थी।
अब भी समय है – विज्ञान को विवेक, अनुशासन और सामाजिक उत्तरदायित्व के साथ अपनाएं, वरना यह वरदान सचमुच एक अभिशाप बन जाएगा।

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