क्या बड़े बयांन किसी रणनीति के तहत बैकिंग सपोर्ट से दिए जाते हैं?तीर निशाने पर नहीं लगा तो,निजी बयान बोलकर बेकिंग से किनारा?

कंटेंप्ट ऑफ़ कोर्ट एक्ट 1971 की धारा 15(1)(बी) व अवमानना संबंधी सुप्रीम कोर्ट 1975 के नियम 3(सी) के तहत अटॉर्नी/सॉलिसिटर जनरल की सहमति से ही कार्रवाई शुरू होगी

-एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी

पिछले कुछ वर्षों में वैश्विक स्तर पर विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव की घटनाएं सामने आती रही हैं। इज़राइल और पाकिस्तान जैसे देशों में कानून बनाकर न्यायपालिका की शक्तियों को सीमित करने के प्रयास हुए हैं। भारत में भी न्यायिक अपॉइंटमेंट कमीशन बिल सहित ऐसे कई सुझाव सामने आए हैं, जिनका उद्देश्य न्यायाधीशों की नियुक्ति को कॉलेजियम सिस्टम के बजाय आयोग या कानून के तहत लाना है। इन घटनाओं के बीच भारत में भी एक बड़ा विवाद जन्म ले चुका है, जिसकी चर्चा अब पूरे देश में हो रही है।

विवाद की शुरुआत

17 अप्रैल 2025 को माननीय राष्ट्रपति और फिर 19 अप्रैल को सत्ताधारी दल के एक सांसद द्वारा सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर की गई टिप्पणी ने सियासी और संवैधानिक गलियारों में भूचाल ला दिया है। इन बयानों के चलते अब सांसद पर आपराधिक अवमानना की तलवार लटक रही है। सुप्रीम कोर्ट के एक अधिवक्ता ने अटॉर्नी जनरल को पत्र लिखकर सांसद के खिलाफ कार्यवाही की अनुमति मांगी है।

क्या थी विवादित टिप्पणी?

सांसद ने सुप्रीम कोर्ट पर आरोप लगाया कि वह देश में धार्मिक युद्ध भड़काने का काम कर रही है। उन्होंने कहा कि “अगर कानून सुप्रीम कोर्ट ही बनाएगा तो संसद भवन बंद कर देना चाहिए।” इसके अलावा उन्होंने CJI पर आरोप लगाया कि देश में गृहयुद्ध जैसे हालात के लिए वे जिम्मेदार हैं। उन्होंने न्यायालय द्वारा राष्ट्रपति और राज्यपाल को विधेयकों पर निर्णय लेने की समयसीमा तय करने के फैसले पर आपत्ति जताई, साथ ही वक़्फ संशोधन विधेयक पर सुनवाई को लेकर सरकार के आश्वासन पर भी सवाल उठाए।

पार्टी की सफाई और सियासी असर

सांसद के बयान के बाद, सत्ताधारी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने इसे व्यक्तिगत राय बताते हुए पार्टी को इससे अलग कर लिया। बयान जारी कर कहा गया कि “पार्टी इन बयानों से सहमत नहीं है और सुप्रीम कोर्ट को लोकतंत्र का मजबूत स्तंभ मानती है।” हालांकि, विपक्ष ने इसे महज़ दिखावटी सफाई करार दिया और आरोप लगाया कि पार्टी सुप्रीम कोर्ट को कमजोर करने की कोशिश कर रही है।

कानूनी परिप्रेक्ष्य और संभावित कार्रवाई

कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट एक्ट, 1971 की धारा 15(1)(बी) और सुप्रीम कोर्ट के 1975 के नियम 3(सी) के तहत, किसी पर अवमानना की कार्यवाही शुरू करने के लिए अटॉर्नी या सॉलिसिटर जनरल की सहमति आवश्यक होती है।
अधिवक्ता द्वारा लिखे गए पत्र में कहा गया है कि सांसद की टिप्पणियाँ “भ्रामक, घोर निंदनीय और न्यायपालिका की गरिमा पर हमला” करने वाली हैं। यह भी आरोप लगाया गया है कि उनके बयान न्यायिक निष्पक्षता में सांप्रदायिक अविश्वास फैलाने की कोशिश हैं, जो अवमानना अधिनियम की धारा 2(सी)(i) के तहत आपराधिक अवमानना की श्रेणी में आते हैं।

क्या कार्रवाई की संभावना है?

ऐसे मामलों में कार्यवाही की संभावना तभी बनती है जब अटॉर्नी जनरल सहमति दें। हालाँकि, पूर्व में कपिल सिब्बल और पी. चिदंबरम जैसे मामलों में ऐसी मांगें खारिज हो चुकी हैं, जिससे लगता है कि मौजूदा मामले में भी कार्यवाही की संभावना कम है। फिर भी, सुप्रीम कोर्ट चाहे तो स्वतः संज्ञान लेकर कार्रवाई शुरू कर सकता है।

राजनीतिक रणनीति या व्यक्तिगत राय?

बड़ा सवाल यह है कि क्या ऐसे विवादित बयान किसी रणनीतिक सोच के तहत पार्टी समर्थन से दिए जाते हैं? और जब तीर निशाने पर नहीं लगता तो पार्टी उसे निजी राय बताकर किनारा कर लेती है?
यह भी एक गंभीर चिंतन का विषय है कि यदि यही बयान किसी सामान्य नागरिक द्वारा दिया गया होता तो क्या अब तक अवमानना की कार्यवाही और दंड नहीं हो चुका होता?

निष्कर्ष

सांसद द्वारा सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ की गई टिप्पणी न केवल संवैधानिक मर्यादा के उल्लंघन का मामला है, बल्कि यह देश की न्यायिक व्यवस्था में जनता के विश्वास को भी कमजोर करती है। ऐसे बयानों पर यदि सख्ती से कार्रवाई नहीं की गई तो यह एक खतरनाक परंपरा की शुरुआत होगी।

-संकलनकर्ता लेखक – क़र विशेषज्ञ स्तंभकार साहित्यकार अंतरराष्ट्रीय लेखक चिंतक कवि संगीत माध्यम सीए (एटीसी) एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र

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