सुप्रीम कोर्ट का महाराष्ट्र चुनाव आयोग को निर्देश- स्थानीय निकायों के चुनाव की अधिसूचना 4 सप्ताह व चुनावी प्रक्रिया 4 माह में संपन्न करने का प्रयास करें
स्वस्थ लोकतंत्र में समयबद्ध चुनाव कराना संवैधानिक कर्तव्य-जमीनी स्तरपर लोकतंत्र को रोकना या बाधित करना कठोर अपराध की श्रेणी में लाना ज़रूरी
– एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं

भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, जहां हर स्तर पर समय पर चुनाव संपन्न कराना एक संवैधानिक दायित्व है। समयबद्ध चुनावों से न केवल प्रशासनिक जवाबदेही सुनिश्चित होती है, बल्कि लोकतंत्र की जड़ों को भी मज़बूती मिलती है। हाल ही में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र के स्थानीय निकाय चुनावों को लेकर ऐतिहासिक फैसला सुनाया है, जिसने देशभर में चर्चा का विषय बना दिया है।
सुप्रीम कोर्ट का निर्देश: 4 सप्ताह में अधिसूचना, 4 माह में चुनाव
दिनांक 6 मई 2025 को सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ (न्यायमूर्ति सूर्यकांत व न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह) ने स्पष्ट रूप से कहा कि लोकतंत्र को ज़मीनी स्तर पर प्रभावी बनाए रखने के लिए समय पर चुनाव अत्यंत आवश्यक हैं। अदालत ने महाराष्ट्र राज्य चुनाव आयोग को निर्देश दिया कि वह 4 सप्ताह के भीतर स्थानीय निकाय चुनावों की अधिसूचना जारी करे और 4 माह के भीतर पूरी चुनावी प्रक्रिया संपन्न करने का प्रयास करे।
ओबीसी आरक्षण विवाद: एक लंबा गतिरोध

महाराष्ट्र में स्थानीय निकाय चुनाव लंबे समय से ओबीसी आरक्षण से जुड़ी कानूनी जटिलताओं के कारण रुके हुए थे। जे.के. बंठिया आयोग की रिपोर्ट के अनुसार स्थानीय निकाय चुनावों में ओबीसी को 27% आरक्षण की सिफारिश की गई थी। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि चुनाव पुराने आरक्षण मानकों के अनुसार कराए जाएं, जो बंठिया आयोग की रिपोर्ट के पहले लागू थे।
लोकतंत्र बनाम नौकरशाही का नियंत्रण
सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि प्रशासनिक अधिकारियों ने नगर निगमों और पंचायतों पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया है, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया बाधित हो रही है। न्यायमूर्ति कांत ने कहा, “एक पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया ठप हो गई है, और अधिकारियों की कोई जवाबदेही नहीं है।”
स्थानीय स्तर पर चुनाव पूर्व गतिविधियाँ: तैयारी या दिखावा?

गोंदिया जैसे छोटे शहरों में भी स्थानीय नेताओं की गतिविधियाँ तेज़ हो गई हैं। कुछ छुटभैया नेता चुनाव लड़ने की तैयारी में मोहल्लों की सफाई, शिविर आयोजन, समाजसेवा जैसी गतिविधियों का प्रदर्शन कर सोशल मीडिया में प्रचार कर रहे हैं। यह एक ओर जागरूकता है, तो दूसरी ओर स्वार्थ सिद्धि का भी संकेत है। आम जनता इस दोहरे रवैये को भलीभांति समझ रही है।
न्यायपालिका की सख्त टिप्पणियाँ

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि आरक्षण को रेल डिब्बे की तरह न देखा जाए जहाँ लोग चढ़ तो जाते हैं लेकिन उतरते नहीं। न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने सवाल उठाया कि क्या आरक्षण का लाभ केवल कुछ ही वर्गों तक सीमित रहना चाहिए? यह राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है कि वे सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से पिछड़े सभी वर्गों के लिए संतुलित आरक्षण सुनिश्चित करें।
निष्कर्ष
भारत जैसे लोकतंत्र में, जहां हर नागरिक की भागीदारी महत्व रखती है, समयबद्ध चुनाव न केवल संवैधानिक दायित्व हैं, बल्कि एक जीवंत लोकतंत्र की पहचान भी हैं। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय स्वागत योग्य है और इससे प्रशासनिक निष्क्रियता पर लगाम लगेगी। अब यह राज्य सरकार, चुनाव आयोग और जनप्रतिनिधियों की जिम्मेदारी है कि वे इस आदेश का पालन करते हुए लोकतांत्रिक प्रक्रिया को पुनः सशक्त करें।
-संकलनकर्ता लेखक – कर विशेषज्ञ स्तंभकार साहित्यकार अंतरराष्ट्रीय लेखक चिंतक कवि संगीत माध्यमा सीए(एटीसी) एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र