✍️ आचार्य डॉ. महेन्द्र शर्मा ‘महेश’

कभी-कभी यह सोचकर मन चौंकता नहीं, दुखता है कि पाकिस्तान जैसे देशों का अस्तित्व किस मानसिकता का परिचायक है? जिस देश की नींव ही धार्मिक उन्माद और शिक्षा-विरोधी सोच पर टिकी हो, वहां से कोई शांति, विवेक और विज्ञान की उम्मीद करना ठीक वैसा है जैसे किसी नशेड़ी से आत्मसंयम की अपेक्षा करना।

मैंने जीवन में अनेक प्रकार के व्यक्तियों पर अध्ययन किया है — नशेड़ी, शराबी, अफीमची — इनकी दिनचर्या में एक पैटर्न होता है। जैसे ही शाम ढलती है, इनके उदर में एसिड (HCl) सक्रिय हो जाता है और यह उन्हें फिर उसी मार्ग पर ले जाता है… मयखाने की ओर। यदि किसी कुत्ते को चार-पाँच दिन नियमित समय पर बर्फी-पेड़ा दिया जाए तो छठे दिन वह घड़ी देखे बिना उसी समय उपस्थित हो जाएगा — यह आदत की शक्ति है। और यही हाल है पाकिस्तान की नीतियों का — आदत और उन्माद के शिकार।

पाकिस्तान आज भी भारत के विरुद्ध अघोषित युद्ध लड़ रहा है। 1947 से लेकर 1999 तक — चार बार युद्ध कर चुका है और चारों बार करारी हार खा चुका है। करगिल युद्ध के समय जब अमेरिका ने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी से पूछा कि यदि पाकिस्तान परमाणु बम का प्रयोग करता है तो? उन्होंने ठोस उत्तर दिया — “तो अगली सुबह पाकिस्तान नक्शे पर दिखाई नहीं देगा।” यह थी भारत की राजनीतिक दूरदर्शिता और सामरिक स्पष्टता।

जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने भी अपनी पुस्तक “सबसे पहले पाकिस्तान” में स्वीकार किया कि धर्म के नाम पर पाकिस्तान का निर्माण एक ऐतिहासिक भूल थी। जब राष्ट्र की नींव “राष्ट्र पहले” नहीं बल्कि “मज़हब पहले” पर रखी जाती है, तब उसका विनाश निश्चित होता है।

हाल ही में ऑपरेशन सिंदूर के दौरान आतंकवादी अजहर महमूद के भतीजे की मौत पर उसे सैन्य सम्मान देना, झंडे में लपेटना और अधिकारियों का उसके जनाजे में शामिल होना — यह सिद्ध करता है कि पाकिस्तान की सेना और आतंकवाद में कोई अंतर नहीं बचा।

आज भी पाकिस्तान में लोकतंत्र एक मुखौटा है। वहां की वास्तविक सत्ता कठमुल्लाओं और सेना के हाथ में है। वर्तमान सैन्य प्रमुख मुनीर स्वयं एक मौलवी का पुत्र है — जिसका मस्तिष्क धार्मिक उन्माद से ग्रस्त है। अमेरिका की मध्यस्थता से भले ही युद्धविराम हो गया हो, पर पाकिस्तान की उन्मादी सत्ता को शांति रास नहीं आती।

इस युद्धविराम के पीछे भी अमेरिका की चिंता थी — उसके F-16 जैसे लड़ाकू विमानों की भारत के सामने विफलता। यह उसकी सैन्य प्रतिष्ठा पर संकट बन सकता था। आखिर कौन देश ऐसे असफल हथियार खरीदेगा?

थोड़ा सा प्रश्न सरकार से भी अवश्य बनता है जिस भारत ने आजतक किसी तीसरे देश की मध्यस्थता कैसे स्वीकार की, अमेरीका के राष्ट्रपति ने युद्ध विराम की घोषणा कैसे कर दी जबकि “आयरन लेडी” श्रीमती इंदिरा गांधी ने 1971 के युद्ध में पाकिस्तान से कोई मौखिक नहीं बल्कि लिखित समझौता किया थाl राष्ट्रवाद के लिए देश के सभी राजनैतिक दल जब सरकार को समर्थन दे रहे हैं तो अन्तरराष्ट्रीय विषयों पर सरकार को विपक्ष को भी विश्वास में लेना चाहिए था l

पाकिस्तान की स्थिति अब वही हो गई है — “जूता भी खाएगा और प्याज भी।” चार युद्धों में जूते खाए और अब आर्थिक पतन, भूख, वैश्विक बेइज़्ज़ती और आतंकवादी पहचान के प्याज भी चख रहा है।

अब बात करें कश्मीर की — जिसे पाकिस्तान अपना बताने की गीदड़भभकी देता है। क्या पाकिस्तान जानता है कि यह भूमि कशीर है — ऋषि कश्यप की, केसर की, शिव और सती के संवाद की, मार्तण्ड सूर्य मंदिर, क्षीर भवानी और शारदा पीठ की भूमि है? यहां के मुसलमान भी पंडित कहलाते हैं, क्योंकि उनका अतीत सनातन में है। उन्होंने इस्लाम तो अपनाया, लेकिन जड़ों को नहीं छोड़ा। यही सनातन की जीवटता है।

भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है — जहां महात्मा गांधी से लेकर नरेंद्र मोदी तक, देशहित सबसे ऊपर रहा है। यहां जनता शिक्षित है, दूरदर्शी है, प्रश्न करती है। भले ही हाल के वर्षों में मीडिया पर नियंत्रण और शिक्षा में कटौती की चिंता हो, पर भारत अभी भी एक जीवंत लोकतंत्र है।

एक समय आएगा जब पाकिस्तान के पतन से हमारे देश के युवाओं को भी चेतना लेनी होगी — ताकि वे भारत को अफगानिस्तान, सीरिया या तालिबान नहीं बनने दें। क्योंकि अगर हमने शिक्षा, विवेक और राष्ट्रधर्म को खो दिया — तो हम भी उन देशों की तरह दुनिया भर में वेटर, ड्राइवर और शरणार्थी बनकर रह जाएंगे।

भारत ने बुद्ध पूर्णिमा को परमाणु परीक्षण कर शांति का संदेश दिया था — यह हमारी परंपरा है, सामर्थ्य के साथ संयम। पर पाकिस्तान की मति मारी गई है, वह अब भी उन्माद के नशे में जूते और प्याज दोनों खा रहा है।

भारत कभी नहीं चाहता कि पाकिस्तान समाप्त हो — क्योंकि पाकिस्तान ही हमारा रक्षा-कवच है। वही हमें बार-बार सतर्क करता है, एकजुट करता है, हमारे राष्ट्रवाद को जीवंत बनाए रखता है।

नमन है कर्नल सोफिया कुरैशी, विंग कमांडर व्योमकेश और उन सभी वीरों को जिन्होंने ऑपरेशन सिंदूर में भारतीय पराक्रम का झंडा गाड़ा।

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