आचार्य डॉ. महेन्द्र शर्मा

देश की राजनीति में इन दिनों जो कुछ हो रहा है, वह केवल आश्चर्यजनक ही नहीं, बल्कि गहराई से चिंतन योग्य भी है। विगत दिनों एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल द्वारा प्रस्तावित ‘सिंदूर वितरण अभियान’ का अचानक वापिस लिया जाना यह दर्शाता है कि जनमानस की प्रतिक्रिया अब केवल मौन नहीं है, बल्कि वह प्रतिकार के स्वर में मुखर हो रही है।

जिस सिंदूर को एक दल ने महिला सम्मान का प्रतीक बताकर राष्ट्रव्यापी स्तर पर बांटने की योजना बनाई, उसी सिंदूर पर जनमानस ने कटाक्ष किया—

“यदि कोई सिंदूर लेकर आया, तो वह सिर मुंडवाकर ही जाएगा।”

यह बयान किसी राजनीतिक प्रतिपक्षी का नहीं, बल्कि जनसामान्य की भावना का प्रतीक है।

भारतीय समाज भावुक अवश्य है, परन्तु अंधभक्त नहीं। वह अपने धर्म, परम्पराओं और मर्यादाओं को जानता है। हमारे सनातन धर्म में सिंदूर केवल एक स्त्री के वैवाहिक जीवन की गरिमा का प्रतीक नहीं, बल्कि उसके आत्म-सम्मान का भी भाव है। यह अधिकार केवल पति को है, और यह भावनात्मक सम्बंध जबरन राजनीतिक विमर्श में लाकर राजनीतिक हथियार नहीं बनाया जा सकता।

यह कहना भी समीचीन होगा कि भारत का धर्मनिरपेक्ष संविधान, सनातन मूल्यों से टकराए बिना, सभी पंथों को समान दृष्टि से देखता है। लेकिन जब कोई राजनीतिक नेतृत्व इन मूल्यों की लोकप्रियता को भुनाने के लिए धार्मिक प्रतीकों का राजनीतिकरण करता है, तो यह न केवल अनुचित होता है, बल्कि सांस्कृतिक अपमान की भी श्रेणी में आता है।

इतिहास गवाह है कि जब-जब देश को दिशा देने की आवश्यकता हुई, महापुरुषों ने धर्म की व्याख्या समयानुकूल की— डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने विवाह की रीति में सात फेरे जोड़कर नवदम्पत्तियों के आपसी सामंजस्य को महत्व दिया, पं. बालगंगाधर तिलक ने श्री गणेश उत्सव को जनजागरण का माध्यम बनाया। ये परिवर्तन समाज की आवश्यकता को ध्यान में रखकर किए गए थे, न कि चुनावी लाभ के लिए।

इसके उलट, वर्तमान में हम देखते हैं कि धार्मिक प्रतीकों को प्रचार माध्यम बना दिया गया है। जो नेता धर्म, अनुशासन और परंपरा के न्यूनतम मापदंड भी नहीं जानते, वे समाज को धर्म की परिभाषा देने चले हैं। यही कारण है कि ‘सिंदूर आंदोलन’ की घोषणा के तुरंत बाद जो प्रतिक्रिया सामने आई, उसने पार्टी नेतृत्व को वापसी के लिए विवश कर दिया।

इसी परिप्रेक्ष्य में हाल ही में हुआ भारत-पाक तनाव भी देखने योग्य है। सीमित समय का यह टकराव किसी युद्ध का रूप नहीं ले पाया, फिर भी उसके बाद जो राजनीतिक विजयगाथाएं प्रस्तुत की गईं, वे वास्तविकता से अधिक प्रचार प्रतीत हुईं। सेना के पूर्व शीर्ष अधिकारियों तक को कहना पड़ा कि रक्षा और सुरक्षा जैसे विषयों को राजनैतिक घोषणाओं का औजार न बनाया जाए।

दुखद यह है कि एक ओर देश की सीमाओं पर चिंताजनक घटनाएं घटती हैं, और दूसरी ओर चुनावी मंचों से विजय रथ यात्राएं निकाली जाती हैं, जैसे कि कुछ असाधारण पराक्रम किया गया हो। इस सबसे इतर, आम जनमानस का विश्वास मूर्त्तिः से अमूर्त्तिः की ओर जाने लगा है। लोग पूछ रहे हैं—

“हर बार पुलवामा और पहलगाम जैसे घटनाक्रम चुनावों से पहले ही क्यों होते हैं?”

इन सब घटनाओं की पृष्ठभूमि में सिंदूर वितरण की योजना और उसमें नेतृत्व की ‘मानद पिता’ जैसी भावुक अपील, राजनीति को हास्यास्पद स्थिति में ला देती है। कल्पना कीजिए, यदि आने वाले समय में किसी बच्चे के शैक्षणिक प्रमाणपत्र पर उसके जैविक पिता के साथ ‘मानद पिता’ के रूप में किसी नेता का नाम और फोटो हो, तो वह समाज के लिए त्रासदी से कम नहीं

भारतीय समाज में स्त्री ने सदा अपने पति द्वारा दिए गए सिंदूर को ही स्वीकार किया है, किसी अन्य द्वारा प्रदत्त सिंदूर को वह धर्म, संस्कृति या मर्यादा का अंग नहीं मानती। इसलिए राजनीतिक प्रचार के लिए इस पवित्र प्रतीक का उपयोग करना न केवल अनुचित, बल्कि अमर्यादित भी है।

किसी भी दल के लिए यह आवश्यक है कि वह राजनीति में धर्म की गरिमा को बनाए रखे, धर्म को राजनीति में घुसेड़ कर स्वयं को अवतारी पुरुष घोषित करने का प्रयास न करे।
जैसा कि स्व. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने नागपुर में कहा था —

“भारत को जानना हो तो नेहरू की डिस्कवरी ऑफ इंडिया पढ़िए।”
“और बड़ा बनना हो, तो छोटी हरकतें त्याग दीजिए।”

आज का समय आत्मावलोकन का है।
जरूरत इस बात की है कि राजनीति को धर्मसम्मत बनाएं,
धर्म को राजनीति के औजार की तरह न बरतें।
और सबसे जरूरी, महिला सम्मान को किसी भी प्रकार के सस्ता प्रचार न बनने दें।

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