व्यावहारिक रूप से विश्व में शासन के तीनों अंगों विधायिका, कार्यपालिका एंव न्यायपालिका के अधिकारों व शक्तियों में संतुलन स्थापित है

विश्व में कोई भी पद शक्तिशाली नहीं होता,पद पर बैठने वाले की क्षमता, योग्यता और नैतिक साहस से किसी पद की शक्ति तय होती है, सटीक विचार

एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी

गोंदिया महाराष्ट्र–विश्वभर में लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के तीन प्रमुख स्तंभ – विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका – शासन और कानून के संतुलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अक्सर एक सवाल उठता है: क्या कोई पद अपने आप में शक्तिशाली होता है या उस पर बैठने वाले की क्षमता, योग्यता और नैतिक साहस से उसकी शक्ति तय होती है?

इस लेख में हम इसी प्रश्न पर चर्चा करेंगे और देखेंगे कि व्यावहारिक रूप से कौन अधिक प्रभावशाली होता है – कार्यपालिका या न्यायपालिका? साथ ही, क्या पद का कद ज्यादा मायने रखता है या उस पर बैठने वाले व्यक्ति की योग्यता और साहस?

लोकतंत्र के चार स्तंभ और उनके अधिकार

लोकतंत्र के चार स्तंभ – विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया – सभी का कार्यक्षेत्र, अधिकार और जिम्मेदारियां निर्धारित हैं। परंतु, इनकी आपसी तुलना करना उचित नहीं होता। प्रत्येक स्तंभ अपनी भूमिका में महत्त्वपूर्ण है और किसी को कम या अधिक नहीं आंका जा सकता। फिर भी व्यवहारिक दृष्टिकोण से यह सवाल उठता है कि इनमें कौन अधिक शक्तिशाली है?

कार्यपालिका और न्यायपालिका में शक्ति का संतुलन

भारत में कार्यपालिका और न्यायपालिका की शक्तियों की तुलना करते हुए कहा जा सकता है कि कार्यपालिका – अर्थात प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद – अधिक शक्तिशाली है। कार्यपालिका कानून बनाती है और न्यायपालिका उन कानूनों की व्याख्या और पालन कराती है। हालांकि न्यायपालिका अपने आदेश दे सकती है, लेकिन कार्यपालिका उन आदेशों को विधायी प्रक्रिया के जरिए बदल सकती है।

उदाहरणार्थ:

  • शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय कार्यपालिका द्वारा संविधान संशोधन कर बदल दिया गया।
  • तीन तलाक और जीएसटी जैसे महत्वपूर्ण निर्णय कार्यपालिका द्वारा लिए गए, जिससे इसकी शक्ति और प्रभाव का पता चलता है।
  • दिल्ली सरकार बनाम उपराज्यपाल मामले में भी कार्यपालिका ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को पलटने के लिए नया विधेयक पारित किया।

प्रधानमंत्री बनाम मुख्य न्यायाधीश: शक्ति की तुलना

प्रधानमंत्री की भूमिका लंबे समय तक रह सकती है, जबकि मुख्य न्यायाधीश का कार्यकाल सीमित और 65 वर्ष की आयु सीमा तक होता है। प्रधानमंत्री संसद और विधायिका का समर्थन प्राप्त कर अपने निर्णय लागू कर सकता है, जबकि मुख्य न्यायाधीश का निर्णय भी कार्यपालिका द्वारा विधायी प्रक्रिया से बदला जा सकता है।

उदाहरण:

  • टी.एन. शेषन ने मुख्य चुनाव आयुक्त रहते हुए अपनी क्षमता और साहस से चुनाव प्रणाली में बड़ा बदलाव किया, परंतु वही पद अन्य लोगों के लिए इतना प्रभावी सिद्ध नहीं हुआ।
  • इंदिरा गांधी के समय के मुख्य न्यायाधीशों ने आपातकाल का समर्थन किया, जो दिखाता है कि पद की शक्ति नहीं, बल्कि व्यक्ति की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है।

वैश्विक परिप्रेक्ष्य

भारत ही नहीं, अमेरिका और अन्य लोकतंत्रों में भी यही परिपाटी देखी जाती है। उदाहरण के तौर पर अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपने निर्णयों से वैश्विक स्तर पर कई बार कार्यपालिका की शक्ति और साहस का प्रदर्शन किया है, जैसे:

  • अमेरिकी फर्स्ट नीति,
  • रूस-यूक्रेन और हमास-इजरायल युद्ध में पहल,
  • सर्जिकल स्ट्राइक और आर्थिक प्रतिबंध जैसे निर्णय।

निष्कर्ष

व्यावहारिक रूप से दुनिया में शासन के तीनों अंग – विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका – के अधिकार और शक्तियां संतुलित होती हैं। कोई भी पद अपने आप में शक्तिशाली नहीं होता; उसकी शक्ति उस पर बैठने वाले की क्षमता, योग्यता और नैतिक साहस पर निर्भर करती है।

इसलिए प्रश्न यह नहीं होना चाहिए कि कौन सा पद अधिक शक्तिशाली है, बल्कि यह कि उसमें बैठा व्यक्ति अपने साहस और योग्यता से कितना प्रभावी सिद्ध होता है।

अंतिम शब्द

“पद नहीं, पद पर बैठने वाले की क्षमता और साहस से तय होती है शक्ति।

संकलनकर्ता लेखक: कर विशेषज्ञ, स्तंभकार, साहित्यकार, अंतरराष्ट्रीय लेखक, चिंतक, कवि, संगीत माध्यमा सीए(एटीसी) एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी, गोंदिया, महाराष्ट्र

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