“जब जीवन का अर्थ सिर्फ संपत्ति रह जाए”
डॉ. सत्यवान सौरभ

“अच्छे जीवन” की जो धारणा आधुनिक समाज में बन रही है, वह भौतिक वस्तुओं, सामाजिक दिखावे और व्यक्तिगत उपलब्धियों तक सिमटती जा रही है। नैतिकता, करुणा, और सामूहिक भलाई जैसे जीवन-मूल्य हाशिए पर जा चुके हैं। इस सोच ने न केवल व्यक्ति की आत्मा को भीतर से खोखला किया है, बल्कि हमारे सामाजिक और संस्थागत ढांचे की रीढ़ को भी तोड़ डाला है।
1. भौतिकता का भ्रम और जीवन का संकुचन
आर्थिक समृद्धि आज सफलता का पर्याय बन चुकी है। आलीशान मकान, ब्रांडेड जीवनशैली और दिखावा ही मापदंड हैं—चाहे उसके पीछे बेईमानी, शोषण या नैतिक पतन क्यों न हो। “साध्य ही सब कुछ है, साधन नहीं”—यह विचार अब सामान्य हो गया है।
2. व्यक्तिवाद बनाम सामाजिक चेतना
“मैं” के इर्द-गिर्द घूमती मानसिकता ने “हम” की भावना को नष्ट कर दिया है। आज की दुनिया में समाज बस रहा है लेकिन सामूहिकता मिट रही है। चौपाल, पुस्तकालय, खेल मैदान जैसे सामाजिक स्थान गायब हो रहे हैं। त्योहार अब आत्मीयता नहीं, सोशल मीडिया पोस्ट के अवसर बन गए हैं।
3. उपभोग की अनैतिक दौड़
बाजार ने हमें सिखा दिया है कि जितना अधिक उपभोग, उतना अधिक सुख! लेकिन क्या हम जानते हैं कि उस उपभोग के पीछे क्या छिपा है? फास्ट फैशन से लेकर खाद्य श्रृंखला तक, हम उस अनैतिकता का हिस्सा हैं जो श्रमिकों के शोषण और पर्यावरणीय विनाश की नींव पर टिकी है।
4. संस्थागत नैतिक पतन और सामाजिक संवेदनहीनता
कॉर्पोरेट घोटाले, राजनीतिक भ्रष्टाचार, शिक्षा में गिरावट—ये सब संकेत हैं कि लाभ की भूख ने नैतिक सीमाएं लांघ दी हैं। यही स्थिति व्यक्तिगत जीवन में भी है। सहानुभूति, करुणा और सामाजिक उत्तरदायित्व जैसी संवेदनाएँ कम होती जा रही हैं।
5. नैतिक सापेक्षवाद: “सिस्टम ही ऐसा है!”
आज कोई भी अनैतिक आचरण जैसे नकल, झूठ या रिश्वत को गलत नहीं मानता—क्योंकि “सब कर रहे हैं”। यह सोच समाज के सामूहिक नैतिक पतन का परिचायक है।
6. पर्यावरणीय परिप्रेक्ष्य: जब उपभोग बन जाए विनाश का कारण
हम जो जीवन जीने की कोशिश कर रहे हैं, वही पृथ्वी के भविष्य के लिए खतरा बनता जा रहा है। जलवायु संकट, जल संकट, जैव विविधता का विनाश—all in the name of a “better life”!
7. ब्रांडेड नैतिकता बनाम सच्चा उत्तरदायित्व
CSR (कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व) अब महज़ एक ब्रांडिंग टूल बन गया है। जमीन पर नैतिक बदलाव लाने की बजाय सतही कार्यों से संस्थाएँ अपना चेहरा चमकाती हैं।
पुनर्परिभाषा की आवश्यकता: कैसा हो “अच्छा जीवन”?
हमें “अच्छे जीवन” को फिर से परिभाषित करना होगा:
- केवल अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए भी जीना
- उपभोग नहीं, संतुलन
- विलासिता नहीं, उत्तरदायित्व
- आत्म-केन्द्रिकता नहीं, करुणा और सहयोग
- पर्यावरण के साथ सामंजस्य
बौद्ध, जैन, गांधीवादी विचारधाराएँ आज भी इस दिशा में मार्गदर्शक हैं।
शिक्षा का दायित्व और नीति की भूमिका
नई शिक्षा नीति में नैतिक शिक्षा को शामिल किया जाना एक सराहनीय कदम है। बच्चों को प्रारंभ से ही सच्चाई, सहानुभूति और कर्तव्यबोध सिखाया जाए, तभी भविष्य की पीढ़ी इस भ्रम से बाहर निकलेगी।
उपसंहार: जीवन केवल जीने का नाम नहीं…
जीवन जीने मात्र से नहीं, सही ढंग से जीने से अर्थवान बनता है। एक ऐसा जीवन जिसमें आत्मा शांत हो, समाज न्यायपूर्ण हो, और पृथ्वी सुरक्षित हो। यही सच्चा “अच्छा जीवन” है—जिसे प्राप्त करने का मार्ग भले कठिन हो, लेकिन सामूहिक प्रयास से संभव है।