“जाके प्रिय न राम बैदेही,
तजिए ताहि कोटि बैरी सम, जथापि परम सनेही…”
— आचार्य डॉ. महेन्द्र शर्मा ‘महेश’, श्री गुरु शंकराचार्य पदाश्रित

यह दोहा केवल साहित्य नहीं, धर्म और अनुशासन का मूल मंत्र है। भगवान को केवल प्रेम, श्रद्धा और विश्वास नहीं, अनुशासन भी उतना ही प्रिय है। माता-पिता, गुरु, शास्त्र, सदाचार—इनका सम्मान यदि नहीं किया गया, तो केवल ज्ञान या शक्ति किसी को वंदनीय नहीं बनाते।
धार्मिक पतन का प्रारंभ – घर से
एक वृद्ध पिता बार-बार पानी माँगते हैं, पर उनका बड़ा पुत्र उनकी उपेक्षा करता है। छोटा भाई इस दृश्य को देख कर बुरा भला तो कहता है, पर अंततः वही कहता है—”बापू! तू अपने आप पानी ले और लौटते वक्त मेरे लिए भी एक लोटा भर ला।”
यही असंवेदनशीलता उग्रवाद की जननी है। जब हम देवतुल्य माता-पिता का तिरस्कार करते हैं, गुरुजनों की उपेक्षा करते हैं, धर्मग्रंथों का अनादर करते हैं, तभी हमारे भीतर का राक्षसी भाव जन्म लेता है।
धर्म की राजनीति और राजनीति का धर्म में हस्तक्षेप
आज हम धर्म का नहीं, धर्म के नाम पर राजनीति का पालन कर रहे हैं। त्रेता और द्वापर युग के धर्मविपरीत आचरणों के प्रसंग—सीता हरण, द्रौपदी चीरहरण—आज पुनः समाज में पुनरावृत्त हो रहे हैं। द्वापर में जहां द्रौपदी का अपमान राजदरबार में हुआ, वहीं कलियुग में सड़क पर नारी का सम्मान तार-तार किया जा रहा है।
जब धर्म का ह्रास होता है, तब भगवान को स्वयं अवतरित होना पड़ता है। श्रीराम 12 कलाओं से युक्त थे, श्रीकृष्ण 16 कलाओं से। कलियुग में शायद भगवान को इससे भी अधिक शक्तियों से सुसज्जित होकर आना पड़े।
एकलव्य बनाम अर्जुन – कौन श्रेष्ठ?
कभी-कभी प्रश्न उठता है—अर्जुन श्रेष्ठ शिष्य था या एकलव्य?
ध्यान रहे, धर्म केवल कौशल नहीं, साधना और मर्यादा का नाम है। अर्जुन गुरु के आदेश और मर्यादा में रहा। वह जब वृहन्नला बना, तब भी विराट युद्ध में विजयी हुआ और उसका श्रेय उत्तर को दे दिया।
वहीं एकलव्य का शिष्यत्व एकतरफा था। गुरुदेव की आज्ञा बिना, उनकी मूर्ति बना कर साधना करना अनुशासन नहीं, अधर्म था। अतः द्रोणाचार्य ने उसके अंगूठे का दान माँगा—यह केवल व्यक्तिगत निर्णय नहीं, धर्म की रक्षा के लिए था।
धार्मिक ग्रंथों की दृष्टि में महापुरुष और खलनायक
रावण, कंस, दुर्योधन, जयद्रथ, जरासंध जैसे अनेक चरित्र महाबली अवश्य थे, पर वे वंदनीय नहीं हुए। रावण ने शिव को 10 सिर अर्पित किए, एकलव्य ने गुरु को अंगूठा, पर इन सबके कर्म अनुकरणीय नहीं थे।
इसीलिए आज कोई अपने पुत्र का नाम रावण, दुर्योधन, जयद्रथ या दु:शासन नहीं रखता। धर्म केवल शक्ति नहीं, मर्यादा भी चाहता है।
ईश्वर की दीर्घकालिक योजना
“मेरी, हमारी या तुम्हारी सोच क्षणिक हो सकती है, पर ईश्वर दीर्घकालिक योजना के अंतर्गत कार्य करता है।”
यही कारण है कि भगवान श्रीकृष्ण ने धर्म की स्थापना हेतु बर्बरीक का शीश माँगा, यदुवंशियों को भी आपस में लड़वा दिया। क्योंकि भविष्य में धर्म पर कोई प्रश्नचिन्ह न लगे, यह सुनिश्चित करना ही भगवान का कर्तव्य होता है।
निष्कर्ष : धर्म ही राष्ट्र की आत्मा है
शास्त्र कहते हैं —
“यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥”
जहां श्रीकृष्ण हैं, वहां विजय निश्चित है। यदि हम अपात्र को नायक बना दें, केवल विद्वता या शक्ति के आधार पर, तो हमें न केवल धर्म त्यागना पड़ेगा बल्कि गीता का यह श्लोक भी हटाना पड़ेगा।
इसलिए भारतीय संस्कृति कभी उन चरित्रों को आदर्श नहीं मानती जिनके कर्म शंकास्पद हों। ईश्वर को प्रिय है — श्रद्धा, अनुशासन और धर्म निष्ठा।
हमें चाहिए कि हम गीता, रामायण और पुराणों के प्रसंगों को गहराई से पढ़ें, समझें और धर्म के वैज्ञानिक, आध्यात्मिक तथा व्यवहारिक पक्षों को जीवन में उतारें।