“Il राजानां अनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजा” — चाणक्य
(जैसा राजा होगा, वैसी ही उसकी प्रजा बन जाएगी)
✍️ आचार्य डॉ. महेन्द्र शर्मा ‘महेश’

गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस के सुंदरकांड में स्पष्ट रूप से कहा कि यदि राजा चापलूसों की सुनकर नीति बनाए, रोगी चिकित्सक की सलाह को नजरअंदाज करे, और शिष्य गुरु व माता-पिता की आज्ञा न माने, तो इन तीनों का पतन निश्चित है। यह केवल धार्मिक या नैतिक उपदेश नहीं है, बल्कि गहन राजनीतिक संकेत है।
नेतृत्व: एक दुर्लभ और उत्तरदायित्वपूर्ण सौभाग्य
नेतृत्व का अर्थ केवल शासक बनना नहीं है, बल्कि समाज के दुःख-सुख में सहभागी बनना है। यदि सभी को नेतृत्व का अवसर मिल जाए तो अराजकता फैल जाएगी। जब से भारत के बड़े राजनैतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र का क्षरण हुआ है, तबसे अनेक राष्ट्रीय दल प्रांतीय स्तर पर अप्रासंगिक हो गए हैं। आज अधिकतर क्षेत्रीय दल व्यक्तिवाद और वंशवाद की राजनीति में उलझे हैं, जो किसी एक नेता के जीवन तक सीमित रह जाते हैं।
हरियाणा की राजनीति इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। कभी जो परिवार राजनीति के सिंहासन पर विराजमान थे, आज उन्हें अस्तित्व बचाने के लिए तिकड़मों और गठबंधनों का सहारा लेना पड़ रहा है। कारण स्पष्ट है — वे अपने पूर्वजों के कर्तव्यपथ से विमुख हो चुके हैं।
धर्म और सत्ता का विचलन
आज के राजनेता, सत्ता में रहकर धर्म की बात तो करते हैं, लेकिन गीता और रामायण का पालन नहीं करते।
गीता त्याग सिखाती है, और रामायण कर्तव्य। लेकिन त्याग और कर्तव्य का पालन कौन करना चाहता है?
आज शासन में सत्य कहने वालों को प्रताड़ना मिलती है, शिक्षा और अन्न का अभाव बना हुआ है, और जनता को प्रश्न पूछने का अधिकार नहीं।
जिस शासन में प्रश्न करना कठिन हो जाए, वह लोकतंत्र नहीं, दमनतंत्र होता है।
इतिहास की पुनरावृत्ति: वही उग्रता, नए औज़ार
मुगलकाल में राज्य के पास तलवार और कुरान थे। आज के लोकतंत्र में तलवार की जगह प्रशासनिक तंत्र है।
उस समय “न माने तो सिर काटो”, आज “न माने तो केस कर दो, छापा डाल दो, सरकारी तंत्र से कुचल दो।”
प्रशासनिक उग्रता वही है, बस संसाधन और शैली बदल गई है।
समस्या केवल चुनाव नहीं, दृष्टिकोण है
चुनावों की पारदर्शिता पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है जब वोटर सूची का पवित्रीकरण चुनाव के बाद किया जाए। यदि सूची अब सुधारी जा रही है, तो क्या पहले हुए चुनाव न्यायोचित थे?
2031 तक कोई बड़ा परिवर्तन संभावित नहीं दिखता। परंतु जनता अब धीरे-धीरे जागरूक हो रही है।
वह समझ रही है कि यह केवल राजनीति का पतन नहीं, बल्कि मूल्यों का ह्रास है।
समाधान: सच्ची सेवा और सत्य का आचरण
ईश्वर को खोजने से पहले यदि हम मंदिर की सीढ़ियों पर बैठे भूखे, बीमार, उपेक्षित लोगों की सेवा करें, तभी ईश्वर प्रसन्न होंगे।
“मंदिर के बाहर तो देखो, भूखे बच्चे सोये हैं,
एक निवाला इनको देना, प्रसाद मुझे चढ़ जाएगा…”
नेतृत्व का वास्तविक अर्थ
नेता वह है जो दुख में सबसे पहले खड़ा हो, और सफलता में सबसे पीछे — ईश्वर को धन्यवाद देते हुए।
नेतृत्व त्याग, सेवा और विवेक के साथ जुड़ा है, न कि केवल सत्ता, प्रचार और स्वार्थ से।
यदि राजा धार्मिक और न्यायप्रिय होगा, तो प्रजा भी धार्मिक होगी।
अन्यथा जैसा राजा होगा, वैसी ही उसकी प्रजा बनेगी —
चाणक्य का यही शाश्वत सत्य है।