– अभिमनोज

भारतीय लोकतंत्र की आत्मा उसकी अभिव्यक्ति में बसती है — वह अभिव्यक्ति जो सत्ता से प्रश्न करती है, समाज को जागरूक बनाती है, और जनता के पक्ष में खड़ी होती है। इस अभिव्यक्ति का सबसे मुखर माध्यम पत्रकारिता रही है, जो कभी प्रिंट की स्याही में उभरती थी, तो अब मोबाइल की स्क्रीन पर वायरल होती है। लेकिन विडंबना यह है कि वही अभिव्यक्ति, जो लोकतंत्र का आईना है, आज अपराध के कटघरे में खड़ी की जा रही है। विशेषकर तब, जब वह सोशल मीडिया जैसे खुले मंच पर व्यक्त होती है।
आज जब एक पत्रकार ट्विटर पर कोई टिप्पणी करता है, फेसबुक पर कोई पोस्ट साझा करता है, या यूट्यूब पर सत्ता की किसी विफलता को उजागर करता है, तो वह केवल संवाद नहीं कर रहा होता — वह एक जोखिम उठा रहा होता है। उसे पता होता है कि उसकी यह पोस्ट एफआईआर, पूछताछ, या यहां तक कि गिरफ्तारी में बदल सकती है। यह स्थिति केवल चिंताजनक नहीं है, बल्कि लोकतंत्र की उस बुनियाद पर सीधा आघात है, जिसे संविधान ने अनुच्छेद 19(1)(a) में स्थापित किया है — विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।
वास्तविकता यह है कि अब सोशल मीडिया की पोस्ट को असहमति नहीं, आपराधिक इरादा मानकर दंडित किया जा रहा है। पत्रकारों पर राजद्रोह, सार्वजनिक शांति भंग करने, सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने जैसी धाराएं लगाई जाती हैं। अब जबकि भारतीय दंड संहिता (IPC) समाप्त होकर भारतीय न्याय संहिता (BNS) लागू हो चुकी है, तो यह बदलाव मात्र नामों तक सीमित रह गया है; प्रवृत्ति वही है — असहमति को अपराध में बदलने की।
भारतीय लोकतंत्र केवल संस्थागत ढांचे या मतपेटी तक सीमित नहीं है; उसकी असली पहचान उस अधिकार में निहित है जो हर नागरिक को विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है। संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a) इस स्वतंत्रता का मूल है, जिसके सहारे नागरिक सत्ता से संवाद करते हैं, पत्रकार प्रश्न उठाते हैं, और समाज चेतना अर्जित करता है। लेकिन आज जब एक पत्रकार सोशल मीडिया पर अपनी राय रखता है — चाहे वह ट्वीट हो, फेसबुक पोस्ट हो, या यूट्यूब पर टिप्पणी — तो वह केवल एक विचार नहीं साझा करता, वह एक संभावित अपराधी भी बन सकता है। यही वह भयावहता है, जो लोकतंत्र की आत्मा पर सीधा प्रहार करती है।
हाल के वर्षों में अनेक उदाहरण सामने आए हैं, जब पत्रकारों को महज़ इसलिए गिरफ्तार किया गया क्योंकि उन्होंने सोशल मीडिया के माध्यम से सरकार की किसी चूक, प्रशासनिक असफलता, या नीतिगत निर्णय पर सवाल उठाया था। उत्तर प्रदेश में प्रशांत कनौजिया को एक पुराने वीडियो पर टिप्पणी करने के लिए गिरफ्तार किया गया। सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करते हुए इसे “मौलिक अधिकारों का हनन” घोषित करना पड़ा और उनकी त्वरित रिहाई के आदेश देने पड़े। इसी तरह असम में किशोरचंद्र वांगखेम, कश्मीर में गौहर गिलानी, छत्तीसगढ़ में रविशेखर, मणिपुर में इरफान खान और उत्तराखंड में उमेश कुमार जैसे पत्रकारों को सोशल मीडिया पर की गई आलोचनात्मक टिप्पणियों के लिए गिरफ्तार किया गया — और उनके विरुद्ध ऐसे प्रावधान लगाए गए जो आमतौर पर राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं।
इन मामलों में अब भारतीय दंड संहिता नहीं, बल्कि नवगठित भारतीय न्याय संहिता (BNS) के तहत कार्यवाही हो रही है। पत्रकारों पर लगाए गए प्रावधानों में BNS की धारा 150 (पूर्व की धारा 124A — राजद्रोह), धारा 197(1) और (2) (पूर्व की धारा 505 — अफवाह फैलाना या शांति भंग करना) और धारा 198(2) (पूर्व की धारा 153A — सांप्रदायिक वैमनस्य को उकसाना) शामिल हैं। इन धाराओं का उपयोग दर्शाता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अनुच्छेद 19(2) द्वारा जो “यथोचित प्रतिबंध” की अनुमति दी गई थी, वह अब “प्रतिशोध के उपकरण” में बदल चुकी है।
इन कार्रवाइयों का एक उल्लेखनीय पहलू यह है कि अधिकांश पीड़ित पत्रकार आर्थिक-सामाजिक रूप से साधारण पृष्ठभूमि के हैं। वे स्वतंत्र हैं, ग्रामीण क्षेत्रों से आते हैं, या छोटे डिजिटल प्लेटफॉर्म्स से जुड़े हैं। उनके पास न तो बड़े मीडिया हाउस का संरक्षण है, न ही महंगे वकीलों की सेवा का सामर्थ्य। इसका अर्थ यह है कि अभिव्यक्ति जितनी स्वतंत्र हो रही है, उतनी ही असुरक्षित भी होती जा रही है। सोशल मीडिया ने पत्रकार को नीतिगत नियंत्रणों से मुक्त किया, लेकिन उसी स्वतंत्रता ने उसे सत्ता की नज़रों में सबसे कमजोर बना दिया।
यह स्थिति और भी भयावह तब हो जाती है जब हम न्यायिक दृष्टिकोण को समझते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने श्रेया सिंघल बनाम भारत सरकार (2015) में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66A को असंवैधानिक ठहराते हुए यह स्पष्ट किया था कि कोई भी पोस्ट केवल इसलिए आपराधिक नहीं ठहराई जा सकती कि वह “आपत्तिजनक” प्रतीत होती है। जब तक कोई वक्तव्य स्पष्ट रूप से हिंसा के लिए न उकसाए, उसे अपराध नहीं माना जा सकता। लेकिन इस ऐतिहासिक निर्णय के बावजूद, पुलिस अब BNS की अन्य धाराओं का उपयोग उसी उद्देश्य से कर रही है, जिससे 66A की “आत्मा” जीवित बनी हुई है — भले ही वह धारा मृत हो चुकी हो।
प्रशासनिक दृष्टि से समस्या की जड़ मानसिकता में है। राज्य अब सोशल मीडिया की असहमति को अपराध की तरह देखने लगा है। पुलिस, जो नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए होती है, वही अब संविधान के मूल अधिकारों पर सबसे पहले आघात करती है। बिना किसी पूर्व जांच के एफआईआर, बिना पर्याप्त साक्ष्य के गिरफ्तारी, और बिना प्रेस निकायों से परामर्श के कार्यवाही — यह सब उस लोकतंत्र के साथ विश्वासघात है, जिसकी बुनियाद ही विचारों की स्वतंत्रता पर टिकी है।
यह विरोधाभास तब और उजागर होता है जब देखा जाए कि मुख्यधारा के बड़े पत्रकारों पर यह खतरा अपेक्षाकृत कम होता है। उनका संस्थागत कवच, राजनीतिक जुड़ाव, या वैचारिक समीपता उन्हें सुरक्षित रखती है। दूसरी ओर, जो पत्रकार ज़मीन से जुड़ा है, जो वंचितों की आवाज़ उठाता है, वह सबसे पहले निशाने पर आता है। यह भेदभाव लोकतंत्र की आत्मा के विपरीत है, क्योंकि वहां तो हर आवाज़ को समान अधिकार प्राप्त होना चाहिए।
फिर सवाल यह उठता है कि क्या इस स्थिति से उबरने का कोई रास्ता है? निश्चित रूप से है, लेकिन वह केवल विधिक सुधारों से नहीं निकलेगा। आवश्यक है कि BNS में स्पष्ट व्याख्या की जाए कि सोशल मीडिया पर व्यक्त की गई असहमति को किन परिस्थितियों में अपराध माना जा सकता है। इसके लिए गिरफ्तारी से पहले स्वतंत्र प्रेस समीक्षकों की समिति बनाई जाए, न्यायिक दिशा निर्देश तय किए जाएं, और पत्रकारों को विशेष संवैधानिक संरक्षण दिया जाए। इसके साथ ही प्रशासन को बाध्य किया जाए कि पत्रकारों की गिरफ्तारी से पहले प्रेस परिषद, प्रेस यूनियन या स्थानीय मीडिया निकायों से परामर्श लिया जाए।
पर यह सब प्रयास तब तक अधूरे रहेंगे, जब तक समाज स्वयं यह न माने कि असहमति देशद्रोह नहीं होती। जब पत्रकार सत्ता से सवाल करता है, तो वह संविधान का पालन करता है, उसका उल्लंघन नहीं। असहमति को अपराध बनाने का चलन यदि नहीं रुका, तो संवाद सन्नाटे में बदल जाएगा, और लोकतंत्र बहुमत की संख्या से आगे नहीं बढ़ पाएगा।
त्रिपुरा उच्च न्यायालय ने 2021 में अपने एक निर्णय में यह कहा था कि “पत्रकार का कार्य सरकार को आईना दिखाना है, न कि उसके सामने सिर झुकाना।” यह वाक्य केवल एक न्यायिक टिप्पणी नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा का प्रतिबिंब है। ऐसी न्यायिक चेतना यदि व्यापक हो सके, तो संभव है कि वह संविधान में दी गई उस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को फिर से जीवित कर सके, जो इन दिनों हर ट्वीट, हर पोस्ट और हर सवाल के साथ दम तोड़ती नज़र आती है।
भारत यदि एक परिपक्व लोकतंत्र बनना चाहता है, तो उसे अपनी आलोचना से डरना नहीं चाहिए। उसे अपने उन नागरिकों की बात सुननी चाहिए, जो सरकार को नहीं, व्यवस्था को सजग बनाए रखने की कोशिश करते हैं। और इन नागरिकों में पत्रकार सबसे आगे हैं — वे चुप हुए तो लोकतंत्र गूंगा हो जाएगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं साइबर विधि के अध्येता हैं।)