✍???? श्री निवेदन : श्री गुरु शंकराचार्य पदाश्रित – आचार्य डॉ. महेन्द्र शर्मा ‘महेश’, पानीपत

ब्राह्मणों में ब्राह्मणत्व के नवगुण कब स्थापित होंगे?
यह प्रश्न केवल किसी एक जाति विशेष से नहीं, संपूर्ण मानवता के आध्यात्मिक पुनर्जागरण से जुड़ा हुआ है।

आज ग्रंथों का अध्ययन, सूचना का संकलन और शास्त्रार्थ करना आसान हो गया है—गूगल ज्ञान का भंडार है, हर उत्तर तुरंत मिल जाता है। परंतु क्या केवल जानकारी से कोई विद्वान बन सकता है? नहीं।
हमारे ऋषियों-मनीषियों ने जो सिद्धांत प्रतिपादित किए, वे केवल वाक्य नहीं थे, वे उनके जीवन का आचरण थे। उन्होंने जो कहा, पहले उसे जिया। तभी उनके वचनों में कालजयी शक्ति थी।

धर्म—सिर्फ शास्त्रों की व्याख्या नहीं, आचरण की मर्यादा है।
जब तक हम स्वयं पर धर्म के सिद्धांत लागू नहीं करेंगे, तब तक कोई भी व्याख्या केवल विवाद बनेगी, समाधान नहीं। यह शाश्वत सत्य है कि युगानुसार व्यवस्थाएं बदलती हैं—वसुंधरा पर कुछ भी स्थायी नहीं।

श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार धर्म के चार स्तंभ हैं—सत्य, तप, दया और दान
सतयुग में ये चारों पूर्ण थे—शांति, ज्ञान, भक्ति, संतोष, तप और करुणा का सामूहिक सामंजस्य था।
त्रेतायुग में धर्म का एक स्तंभ डगमगाया—काम और अहंकार बढ़े, परिणामस्वरूप सीता हरण हुआ।
द्वापर में दया लुप्त हुई—न्याय, नीति और संविधान पर प्रहार हुआ, फलस्वरूप महाभारत हुआ।
कलियुग में तो केवल ‘दान’ शेष है—वो भी अब संकट में है।

ऐसे में ब्राह्मणत्व के नवगुणों की स्थापना कैसे हो?
गीता में वर्णित ब्राह्मण के नौ गुण—शम, दम, तप, शौच, क्षमा, सरलता, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता—आज कलियुग में मात्र 25% ही बचे हैं।
ब्राह्मण जिन्हें “पृथ्वी के राजा” कहा गया, आज आर्थिक विपन्नता, शैक्षिक अवसरों की कमी और सामाजिक उपेक्षा का शिकार हैं। ऐसे में पूर्ण ब्राह्मणत्व की अपेक्षा कैसे की जाए?

किसी भी वर्ण या व्यक्ति को शास्त्रार्थ की अनुमति नहीं मिलती जब तक वह तप और साधना से स्वयं को योग्य न बनाए।
यदि कोई शूद्र वेद का अध्ययन करना चाहता है तो प्रश्न यह नहीं कि वह क्यों कर रहा है, बल्कि यह है कि क्या उसने स्वयं को योग्य बनाया है?

गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते हैं:

पूजहिं विप्र जो वेद विहीना, शूद्र नहिं कछु ज्ञान परवीना॥

यह पंक्ति वर्ण व्यवस्था की श्रेष्ठता नहीं, उसकी मर्यादा की ओर इंगित करती है—कि जो ब्राह्मण वेदविहीन हैं, और जो शूद्र विद्या में निपुण नहीं, दोनों ही भ्रमित हैं।

धर्म क्षरण का यह परिणाम है कि—
क्षत्रियों के पास भूमि नहीं, वैश्यों की वृत्तियाँ धर्मविरुद्ध व्यापार में लिप्त हैं, शूद्र शासन कर रहे हैं और ब्राह्मण जीविका के लिए व्यापार कर रहे हैं।
धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक सभी क्षेत्रों में मूल मर्यादाएं धूमिल हो गई हैं।

ध्यान रहे—शूद्र कोई अपमानजनक पद नहीं, वह सेवा का प्रतीक है। वैश्य अन्नदाता हैं, क्षत्रिय रक्षक हैं, और ब्राह्मण प्रकाश-स्तंभ हैं।
जब तक ये चारों वर्ण अपने-अपने धर्माचरण में स्थित नहीं होंगे, समाज का संतुलन असंभव है।

आज स्थिति यह है कि ‘त्याग’—जो कलियुग का अंतिम आधार था—वह भी क्षीण होता जा रहा है।
एक छोटा बच्चा भी अगर चॉकलेट देने के बाद उसे वापिस न करे, तो त्याग कहाँ है?
और जब त्याग ही नहीं रहेगा, तो ब्राह्मणत्व के नवगुण कहाँ से आएँगे?

हमारी प्रारब्ध हमारी ही कर्मभूमि का प्रतिबिंब है।
जब तक सतयुग की धर्मव्यवस्था—सत्य, तप, दया और त्याग—फिर से जाग्रत नहीं होगी, तब तक ब्राह्मण में ब्राह्मणत्व के नवगुणों की पूर्ण स्थापना संभव नहीं।

पर अंततः यह होगा अवश्य…
बस—

“आख़िर तुम्हें आना है, ज़रा देर लगेगी…
हम दर्द मोहब्बत का छुपा सकते हैं… लेकिन…”

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