-संसद परिसर में बैनर पर हुई स्पेलिंग मिस्टेक से छिड़ी नई बहस
एक शब्द, एक भूल और बहस का विस्फोट
संसद परिसर में आयोजित लोकतंत्र बचाओ आंदोलन के बैनर पर स्पेलिंग मिस्टेक ने राजनीतिक सामाजिक भाषाई क्षेत्रों में नई बहस छिड़ी
जब कोई शब्द संविधान राजनीति आध्यात्मिकता या जनता की चेतना से जुड़ा हो तब उसमें एक मामूली सी त्रुटि भी व्यापक बहस का विषय बन जाती है
– एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं

गोंदिया महाराष्ट्र – भारत में24 जुलाई 2025 को संसद भवन परिसर में कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों द्वारा आयोजित “लोकतंत्र बचाओ आंदोलन” के बैनर पर लिखी गई एक स्पेलिंग ने राजनीतिक, सामाजिक और भाषाई क्षेत्रों में गहरा प्रभाव डाला। बैनर पर “लोकतंत्र” की जगह “लोकतंतर” लिखा गया था – और यहीं से शुरू हुई एक बड़ी बहस। क्या यह मात्र टाइपो था या फिर इसके पीछे कोई लापरवाही, अज्ञानता या भाषाई असंवेदनशीलता छुपी थी?
भारत: विविधता में एकता, लेकिन भाषा में सतर्कता जरूरी
भारत जैसे देश में, जहां 22 भाषाओं को संवैधानिक दर्जा प्राप्त है और हजारों बोलियाँ बोली जाती हैं, वहां भाषाई सतर्कता अत्यंत आवश्यक है। एक सार्वजनिक स्थल पर, विशेषकर जब कोई शब्द संविधान, राजनीति या आध्यात्मिक चेतना से जुड़ा हो, उसमें गलती भावनात्मक उथल-पुथल का कारण बन सकती है।
एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी, गोंदिया, महाराष्ट्र, अपने अनुभव साझा करते हुए बताते हैं कि कैसे एक धार्मिक कार्यक्रम में भाषा की असावधानी ने आयोजन को संकट में डाल दिया। शब्दों की शक्ति और उनके प्रभाव को समझना अब पहले से कहीं अधिक आवश्यक है।
संसद परिसर का दृश्य: लोकतंत्र के बैनर पर ‘लोकतंतर’?
जब “लोकतंत्र बचाओ आंदोलन” के बैनर पर “लोकतंत्र” की जगह “लोकतंतर” लिखा दिखा, तो यह केवल एक वर्तनी की गलती नहीं रही, बल्कि यह राजनीतिक आंदोलन की गंभीरता पर प्रश्नचिन्ह बन गया।
25 जुलाई 2025 को, आंदोलन के अगले चरण में त्रुटि सुधारी गई और “लोकतंत्र” सही रूप में लिखा गया। लेकिन तब तक सोशल मीडिया पर बवाल मच चुका था, और यह मुद्दा भाषाई जागरूकता के केंद्र में आ गया।
राजनीतिक संदेश और प्रतीकों की अहमियत
राजनीतिक आंदोलन केवल नारों से नहीं, बल्कि प्रतीकों और प्रस्तुति की गंभीरता से प्रभावशाली बनते हैं। “लोकतंत्र बचाओ” जैसा नारा लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों पर संकट का संकेत देता है। ऐसे में अगर उस नारे में ही त्रुटि हो, तो राजनीतिक विरोध कमजोर और हास्यास्पद प्रतीत होने लगता है।
सवाल यह उठता है कि क्या इतना महत्वपूर्ण आंदोलन इस तरह की चूक झेल सकता है? क्या आयोजकों की यह असावधानी जनता को यह संकेत नहीं देती कि वे अपने नारे तक के प्रति गंभीर नहीं?
‘लोकतंतर’ बनाम ‘लोकतंत्र’: एक भाषाई विश्लेषण
- लोकतंत्र = लोक + तंत्र = जनता की शासन व्यवस्था
- तंत्र = व्यवस्था या प्रणाली
- तंतर = न तो शुद्ध हिंदी शब्द है, न ही इसका कोई व्याकरणिक आधार है
इस प्रकार, “लोकतंतर” न केवल गलत है, बल्कि भाषिक दृष्टि से निरर्थक शब्द है। यदि कोई छात्र परीक्षा में ऐसी गलती करे तो उसे शून्य मिल सकता है – फिर एक राष्ट्रीय स्तर के आंदोलन में इस गलती को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है?
क्या यह अज्ञानता है या गंभीर लापरवाही?
जब संसद के सामने कोई प्रदर्शन होता है, तो उससे जुड़ी प्रस्तुति, शब्दों का चयन और व्याकरणिक शुद्धता अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। “लोकतंत्र” जैसे शब्द में हुई गलती यह दर्शाती है कि या तो इसे तैयार करने वालों की भाषाई जानकारी बहुत कम थी, या फिर यह गंभीर स्तर की लापरवाही थी। दोनों ही स्थिति में यह प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है – क्या अब हमारे आंदोलन भी तैयारियों के अभाव में खोखले हो रहे हैं?
सोशल मीडिया पर प्रतिक्रियाएं: आलोचना, व्यंग्य और मीम्स
जैसे ही यह गलती सामने आई, सोशल मीडिया पर प्रतिक्रियाओं की बाढ़ आ गई:
- मीम्स और विडियो क्लिप्स वायरल हुए
- ट्वीट्स में कटाक्ष किया गया: “जो लोग लोकतंत्र बचाने निकले हैं, वे उसकी स्पेलिंग तक नहीं जानते”
- राजनीतिक विरोधियों ने हमला बोला, कहा गया कि यह कांग्रेस और विपक्ष की गंभीरता पर सवाल उठाता है
इसने आंदोलन की प्रस्तुति की विश्वसनीयता को सीधे तौर पर नुकसान पहुंचाया।
क्या यह एक सीखने का अवसर है?
यह घटना केवल आलोचना का कारण नहीं, बल्कि एक शिक्षा का अवसर भी हो सकती है:
- राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे प्रस्तुति की गुणवत्ता पर ध्यान दें
- भाषाई शुद्धता को प्राथमिकता दी जाए
- जनता के मूल भावों और संवैधानिक शब्दों के प्रति संवेदनशीलता बरती जाए
लोकतंत्र केवल चुनावों का नाम नहीं है, वह एक विचार, एक आचरण, एक संस्कृति है। अगर हम उसी को गलती से या लापरवाही से लिखने लगें, तो क्या हम उसकी आत्मा की रक्षा कर पाएंगे?
अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर इसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि गलती नहीं, चेतावनी का संकेत”लोकतंत्र बनाम लोकतंतर” का यह मामला एक सामान्य गलती नहीं, बल्कि चेतावनी है उस असावधानी की, जो आज की राजनीति में घर कर गई है।यह बहस जरूरी है, क्योंकि जब शब्द ही कमजोर पड़ते हैं, तो विचार भी खोखले लगने लगते हैं।“लोकतंतर” जैसे शब्द को टाइपो मानकर छोड़ना नहीं चाहिए, बल्कि यह अवसर है भाषा, प्रस्तुति और विचार की गुणवत्ता पर फिर से ध्यान केंद्रित करने का।
लेखक संकलनकर्ता:एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी(कर विशेषज्ञ, स्तंभकार, साहित्यकार, अंतरराष्ट्रीय लेखक-चिंतक, कवि) गोंदिया, महाराष्ट्र