आचार्य डॉ. महेन्द्र शर्मा ‘महेश’
(श्री गुरु शंकराचार्य पदाश्रित)

संस्कृति, संस्कार, मानवता और धर्म की रक्षा के लिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस के प्रारंभ में ही आत्मोन्नति के तीन सोपान स्पष्ट रूप से लिखे हैं—संयम, श्रद्धा और प्रयास।

1. संयम – “जेहि बिधि नाथ होई हित मोरा…”
2. श्रद्धा – “श्रद्धा विश्वास रूपिणौं…”
3. प्रयास – “बार-बार मुनि जतन कराहीं…”

इन तीन गुणों के माध्यम से ही व्यक्ति आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त करता है। यह केवल धार्मिक रिवाज़ों तक सीमित नहीं, अपितु जीवन की गहराइयों में उतरने का मार्ग है।

हरियाली तीज : गीत का आध्यात्मिक संदेश

सावन मास में गाया जाने वाला लोकप्रिय गीत—

“बरखा रानी जरा जम के बरसो
मेरे साजन जा न पाएं, झूम के बरसो…”

—के वास्तविक अर्थ को हम अब तक केवल प्रियतम-प्रियतमा के सांसारिक प्रेम तक ही सीमित करते आए हैं। जबकि इसका गूढ़ आशय है—गौरी का शिव के प्रति वह समर्पण, जिसमें वह चाहती हैं कि उनके हृदय से शिव की ज्ञानभक्ति कभी भी समाप्त न हो।

इसकी सार्थकता तब सामने आती है, जब हम इस पर्व को केवल मांगलिक अवसर नहीं, आध्यात्मिक जागरण और संयम का उत्सव मानें।

आध्यात्मिक कवच: संयम, प्रार्थना और समर्पण

ईश्वर की प्रार्थना ही हमारा आध्यात्मिक कवच है, जो—

  • हमें संयमित करता है,
  • शुभ आचरण की ओर प्रेरित करता है,
  • पापकर्मों से बचाता है,
  • अहंकार का क्षय करता है,
  • सद्भाव और समभाव को जन्म देता है।

जब यह सब जीवन में उतरता है, तभी व्यक्ति को सारा संसार “सियाराममय” प्रतीत होने लगता है—जहाँ ज्ञान, भक्ति और पूर्ण समर्पण जीवन में प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं।

नारदजी की कथा: ज्ञान पर अहंकार और उसका परिणाम

नारद जी को अपनी ज्ञान और भक्ति पर गर्व था। लेकिन काम (वासना) के प्रभाव से भगवान शंकर तक नहीं बच सके, तो नारद भी नहीं बचे। उनके मन में विश्वसुन्दरी से विवाह की कामना जगी। उन्होंने भगवान विष्णु से ‘सुन्दर रूप’ का वर मांगा, और भगवान ने उन्हें वानर रूप दे दिया। स्वयंवर में जब विश्वसुन्दरी ने नारायण को वरण किया तो नारद ने क्रोध में आकर भगवान को श्राप दे दिया।

भगवान विष्णु ने श्राप को स्वीकार किया और जब नारदजी को उनका वानर रूप दिखाया गया, तब जाकर उन्हें अपने मोह, अहंकार और कामवासना पर ग्लानि हुई।

तभी नारदजी ने आत्मसमर्पण भाव से कहा:

“जेहि बिधि नाथ होई हित मोरा,
करहूं सो बेगि दास मैं तोरा।”

यह प्रसंग बताता है कि संयम, श्रद्धा और प्रयास के बिना भक्ति में भी पतन संभव है।

गीता का मार्गदर्शन

भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता में कहते हैं—

“कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्यैते त्रयं त्यजेत्।
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।।”
(गीता 16/21)

यानि काम, क्रोध और लोभ—ये तीन नरक के द्वार हैं। आत्मोन्नति के लिए इनका त्याग आवश्यक है।

मन की चंचलता पर नियंत्रण

“चंचला हि मनः कृष्ण…”

“घृष्टं पृष्टं पुनरपि पुनश्च चन्दनं चारु गन्धम्।
छिन्नं छिन्नं पुनरपि पुनश्च सुस्वादु इक्षुकाण्डम्।।
दग्धं दग्धं पुनरपि पुनश्च काञ्चनं कान्तवर्णम्।
अंतकाले गति न विकृति जायतेन गति नौत्मानम्।।”

अर्थात — जैसे चंदन को कितनी भी बार रगड़ा जाए, उसकी सुगंध बनी रहती है; गन्ने को काटा जाए तो उसका रस मधुर ही रहता है; सोने को जितना भी तपाओ, वह और निखरता है — वैसे ही एक साधक को हर परिस्थिति में अपने आत्मगुणों को बनाए रखना चाहिए।

हरितालिका तीज : आत्मशुद्धि का उत्सव

यह पर्व केवल महिलाओं के व्रत और शिव-पार्वती की पूजा तक सीमित नहीं है। यह पर्व है—

  • काम, क्रोध और मोह जैसे विकारों पर नियंत्रण का।
  • संयमित जीवन का अभ्यास करने का।
  • गुरु, माता-पिता, महापुरुषों की सेवा और आशीर्वाद से जीवन को श्रेष्ठ बनाने का।

जो साधक इस पर्व को आत्मचिंतन, संयम और भक्ति का माध्यम बनाते हैं, उनके जीवन में शांति, समत्व और मोक्ष की ओर बढ़ने का मार्ग प्रशस्त होता है।

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